________________
२७४ ]
[ पवयणसारो परिणामो" इत्यादि निन्यानवे गाथा में जो कहा था वही यहां कहा गया है। मात्र गुण का कथन किया गया है, यह तात्पर्य है। जैसा जीव द्रव्य में गुण और गुणो का व्याख्यान किया गया है वैसा सर्व द्रव्य में जानना चाहिये ॥१०॥
अथ गुणगुणिनोन नात्वमुपहन्ति
पत्थि गुणो ति व कोई पज्जाओ तोह वा विणा दव्वं । दव्वत्तं पुण भावो तम्हा दवं सयं सत्ता ॥११॥
नास्ति गुण इति वा कश्चित् पर्याय इतीह वा बिना द्रव्यम् ।
द्रव्यत्वं पुनविस्तस्माद्रव्यं स्वयं सत्ता ॥११०।। न खलु द्रव्यात्याभूतो गुण इति वा पर्याय इति वा कश्चिदपि स्यात् । यथा सुवर्णात्पृथग्भूतं तत्पीतत्वादिकमिति या राकुण्डलल्यायिक.मिति । असा तु द्रव्यस्य स्वरूपवृत्तिभूतमस्तित्वाख्यं यद्व्यत्वं स खलु तद्भावास्यो गुण एव भवन् कि हि द्रव्यात्पृथग्भूतत्वेन वर्तते। न वर्तत एव । तहि द्रव्यं सत्ताऽस्तु, स्वयमेव ॥११०॥
भूमिका-अब, गुणी के अनेकत्व का (प्रदेश भेव सहित भिन्न-भिन्न पदार्थ होने का) खण्डन करते हैं
___अन्वयार्थ- [इह] इस विश्व में [द्रव्यं बिना] द्रव्य के बिना (द्रव्य से प्रदेश भेद सहित पृथक) [गुण इति] गुण ऐसी [वा] अथवा [पर्याय इति ] पर्याय ऐसी [कश्चित् ] कोई पदार्थ [नास्ति] नहीं है [पुनः] और [द्रव्यत्वं ] अस्तित्व [भावः | स्वभावभूत गुण है, [तस्मात् ] इसलिये [द्रव्यं] द्रव्य [स्वयं] आप ही [सत्ता] अस्तित्व रूप सत्ता है।
टीका-वास्तव में द्रव्य से पृथग्भूत (प्रदेश भेद रूप) ऐसा गुण या ऐसो पर्याय कोई भी नहीं है, जैसे-सुवर्ण से पृथग्भूत उसका पीलापन आदि या उसका कुण्डलस्वादि नहीं होता। अब, उस द्रव्य के स्वरूप को वृत्तिभूत जो, अस्तित्व नाम से कहा जाने वाला, द्रव्यत्व है वह वास्तव में उसका 'भाव' नाम से कहा जाने वाला गुण ही होता हुआ क्या उस द्रव्य से पृथकरूप से रहता है ? (नहीं हो रहता)। तब फिर द्रव्य स्वयमेव सत्ता हो ॥११०॥
तात्पर्यवृत्ति अथ सह गुणपर्यायाभ्यां सह द्रव्यस्याभेदं दर्शयति
त्थि नास्ति न विद्यते । स क: ? गुणोति य कोई गुण इति कश्चित् । न केवलं गुणः पज्जाओतोह वा पर्यायो वेतीह । कथं ? विणा विना। कि विना ? दवं द्रव्यमिदानों द्रव्यं कथ्यते दव्यत्तं पुण
१. य (ज. वृ.)।