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पवयणसारी
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अयतसिद्धता से भी वह (अर्थान्तरत्व) नहीं बनता । 'इसमें यह है' (अर्थात् द्रव्य में सत्ता है) ऐसी प्रतीति होती है इसलिये वह बन सकता है-ऐसा कहा जाय तो (पूछते हैं कि) 'इसमें यह है' ऐसी प्रतीति किसके आश्रय (कारण) से होती है ? यदि ऐसा कहा जाय कि भेव के आश्रय से (अर्थात् द्रव्य और सत्ता में भेव हम से) होतो है हो वह कौनसा भेद है । प्रादेशिक या अताभाविक ? प्रादेशिक तो है नहीं, क्योंकि युतसिद्धत्व का पहले ही निषेध कर दिया गया है, और यदि अताभाविक कहा जाय तो वह उत्पन्न (ठीक) हो है, क्योंकि ऐसा (शास्त्र का) वचन है कि 'जो द्रव्य है यह गुण नहीं है। परन्तु (यहां यह भी ध्यान में रखना कि) यह अताभाविक भेद 'एकान्त से इसमें से यह है' ऐसी प्रतीति का आश्य (कारण) नहीं है, क्योंकि वह स्वयमेव उन्मग्न (प्रगट) और निमग्न (गौण) होता है। वह इस प्रकार है-जब द्रव्य को पर्याय को मुख्यता से (दृष्टि) से मुख्य किया जाता है (पर्यायायिकनय से देखा जाय) तब हो—'शुवल यह वस्त्र है, यह इसका शुक्लत्व गुण है इत्यादि की मांति, 'गुणवाला यह द्रव्य है, यह इसका गुण है' इस प्रकार अताभाविक मेव उन्मग्न होता है, परन्तु जब द्रव्य को द्रध्य को मुख्यता से (दृष्टि) से मुख्य किया जाता है (क्यायिकनय से देखा जाता है), तब जिसके समस्त गुणवासना के उन्मेष (प्रगटता) अस्त हो गयी है, ऐसे उस जीव के–'शुक्लवस्त्र ही है' इत्यादि की भांति-'ऐसा द्रव्य ही है, इस प्रकार बेखने वाले के समुल ही अताभाविक भेद निमग्न (गौण) होता है । इस प्रकार 'वास्तव में भेव के निमग्न होने पर उसके आश्रय से (कारण से) होने वाली प्रतीति निमग्न होती है। उसके निमग्न होने पर अयतसिद्धत्वजनित अर्थान्तरत्व निमग्न होता है, इसलिये समस्त ही एक द्रव्य ही होकर रहता है। और जब भेद उन्मग्न होता है, उसके उन्मग्न होने पर उसके आश्रय (कारण) से होने वाली प्रतोति उन्मग्न होती है, उसके उन्मग्न होने पर अत्युतसिद्धत्वजनित अर्यान्तरत्व उन्मग्न होता है, तब भी वह (सत्) द्रव्य के पर्यायरूप से उन्मग्न होने से, -जसे जलराशि से जलतरंगें व्यतिरिक्त नहीं हैं (अर्थात् समुद्र से तरंग अलग नहीं हैं) उसी प्रकार द्रव्य से व्यतिरिक्त नहीं होता । ऐसा होने से (यह निश्चित हुआ कि द्रव्य म्वयमेव सत् है । जो ऐसा नहीं मानता वह वास्तव में 'परसमय' भूमिच्यावृष्टि) हो मानना ॥६॥
तात्पर्यवृत्ति ___ अप यथा द्रव्यं स्वभावसिद्ध तथा सदपि स्वभाधित एवेन्याख्याति
वस्वं सहावसिद्ध द्रव्यं परमात्मद्रव्यं स्वभावसिद्ध भवति । कस्मात् ? अनाद्यनन्तेन परहेतुतिरपेक्षेण स्वत सिद्ध न केवलज्ञानादिगुणाधारभूतेन प्रदान दे करूपमुखसुधारसपरमसमरमोभावपरिण