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पपरणसारो ]
[ २५७ पुगल द्रव्य निश्चय से न उपजता है न नष्ट होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि उत्पाद व्यय प्रौव्य रूप होने के कारण द्रष्य की पर्यायों का नाश और उत्पाद होने पर भी द्रव्य का नाश नहीं होता है। इस हेतु से द्रव्य-पर्यायें भी द्रव्य लक्षण होती हैं, ऐसा अभिप्राय
अथ द्रव्यस्योत्पादन्ययधौव्याण्धेकर व्यपर्यायद्वारेण चिन्तयति
परिणमदि सयं दत्वं गुणदो य गुणंतरं सदविसिट्ठ। तम्हा गुणपज्जाया भणिया पुन दव्यमेव त्ति ॥१०॥
परिणमति स्वयं द्रव्यं गुणतश्च गुणान्तरं सदविशिष्टम् ।
तस्माद् गुणपर्याया भणिताः पुनः द्रव्यमेवेति ।।१०४।। एकद्रव्यपर्याया हि गुणपर्यायाः, गुणपर्यायाणामेकद्रव्यत्वात् । एकद्रव्यत्वं हि तेषां सहकारफलवत् । यथा किल सहकारफलं स्वयमेव हरितभावात् पाण्डुभावं परिणमत्पूर्वोसरप्रवृत्तहरितपाण्डुभावाभ्यामनुभूतात्मसत्ताक हरितपाण्डुभावाभ्यां समविशिष्टसत्ताकतकमेव वस्तु न वस्त्वन्तरं, तथा द्रव्यं स्वयमेव पूर्वावस्थावस्थितिगुणादुत्तरावस्थावस्थिसगुणं परिणमत्पूर्वोत्तरावस्थावस्थिगुणाभ्यां ताभ्यामनुभूतात्मसत्ताक पूर्वोत्तरावस्थावमिसगुणाभ्यां सममविशिष्टसत्ताकतयकमेव द्रव्यं न द्रव्यान्तरम् । यर्थव चोत्पद्यमान पायुमावेन, व्ययमानं हरितभावेनावतिष्ठमानं सहकारफलत्वेनोत्पावव्ययात्रौव्यायेकवस्तुपर्यापद्वारेण सहकारफल तथैवोत्पधमानमुत्तरावस्थावस्थितगुणेन, व्ययमानं पूर्वावस्थावस्थितनावतिष्ठमानं द्रव्यत्वगुणेनोल्पाचव्ययधोव्याण्येकद्रव्यपर्यायद्वारेण द्रव्यं भवति ॥१०४॥
भूमिका-अब, द्रव्य के उत्पाद व्यय-ध्रौव्य एक पर्याय के द्वारा विचार करते हैंप अन्वयार्ष-[सदविशिष्टं] सत् से अभिन्न [द्रव्यं स्वयं] द्रश्य स्वयं ही गुणतः च राणान्तरं] गुण से गुणान्तररूप (एक गुणपर्याय से अन्य गुण पर्याय रूप) [परिणमते] रिणामता है, (द्रव्य की सत्ता गुण पर्यायों की सत्ता के साथ अविशिष्ट अभिन्न एक ही रहती है) [तस्मात् पुनः] और इस कारण से [गुणपर्यायाः] गुणपर्यायें [ द्रव्यम् एव ] व्य ही हैं [इति भणिताः] ऐसा कहा गया है।
टीका—जो एक द्रष्य की पर्यायें हैं वह वास्तव में गण-पर्याय हैं, क्योंकि गुणपर्यायों के एक द्रव्यत्व है । उनका व्यत्व आम्रफल की भांति है । जैसे आम्रफल स्वयं ही हरितमान से पोतभावरूप परिणत होता हुआ, प्रथम और पश्चात् प्रवर्तमान हरितभाव
१. अमेति । (ज. वृ०) ।