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[ पवयणसारो परन्तु असमान-जातीय द्रव्य तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं। इस प्रकार स्वतः (द्रध्यत्वेन) भ्रष और द्रव्य-पर्यायों द्वारा उत्पाद-व्ययरूप द्रव्य उत्पाद व्यय प्रौव्य है ॥१०॥
तात्पर्यव त्ति अथ द्रव्यपर्यायेणोत्पादब्ययध्रौव्याणि दर्शयति,
पाडुम्भयदि य प्रादुर्भवति च जायते अण्णो अन्यः कश्चिदपूर्वानन्तज्ञानसुखादिगुणास्पदभूतः शाश्वतिकः । स कः ? पज्जाओ परमात्मावाप्तिरूपः स्वभावद्रव्यपर्यायः पज्जओ वयदि अण्णो पर्यायो व्यातिविनश्यति । कथंभूतः ? अन्य: पूर्वोक्तमोक्षपर्यायाद्भिन्नो निश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिरूपस्यैत्र मोक्षपर्यायस्योपादानकारणभूतः । कस्य सम्बन्धी पर्याय: ? दय्वस्स परमात्मद्रव्यस्य तंपि दध्वं तदपि परमात्मद्रव्यं व य प ण उप्पण्णं शुद्धद्रव्याथिकन येन नैव नष्टं न चोपन्नम् ।।
अथवा संसारिजीवापेक्षया देवादिरूपो विभावद्रव्यपर्यायो जायते मनुष्यादिरूपो विनश्यति तदेव जीवद्रव्यं निश्चयेन न त्रोत्पन्न न च विनाटे, पुलगलद्रव्यं वा अणुकादिस्कन्धरूपस्वजातीयविभावद्रव्यपर्यायाणां विनोशोत्पादेपि निश्चयेन न चोत्पन्न न च विनष्टमिति । तत; स्थितं यतः कारणादुत्पादव्ययध्रौव्यरूपेण द्रव्यपर्यायाणां विनाशोत्पादेऽपि द्रव्यस्य विनाशो नास्ति, ततः कारणाद्रव्यपर्याया अपि द्रव्यलक्षणं भवन्तीत्यभिप्रायः ।। १०३।।।
उत्थानिका--आगे इस बात को दिखलाते हैं कि द्रव्य में पर्यायों की अपेक्षा उत्पाद व्यय ध्रौव्य है--
___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(दब्बस्स) द्रव्य की (अण्णो पज्जाओ) अन्य कोई पर्याय (पाडुम्भवदि) प्रगट होती है (य) और (अण्णो पज्जाओ) अन्य कोई पूर्व पर्याय (वयदि) नष्ट होती है (तपि) तोभी (बच्चं) द्रव्य (णेव पणटुंण उप्पण्णं) न तो नाश हुआ है और न उत्पन्न हुआ है।
शुद्ध आत्मा द्रव्य के जब कोई अपूर्व और अनन्त ज्ञान सुख आदि गुणों के स्थान तथा अविनाशी परमात्म-स्वरूप की प्राप्तिरूप स्वभाव द्रव्य-पर्याय अथवा मोक्षअवस्था प्रगट होती है तब इस मोक्ष-पर्याय से भिन्न तथा निश्चय रत्नत्रयमयी निर्विकल्प समाधिरूप मोक्ष पर्याय की उपादानकारणरूप पूर्व पर्याय नाश होती है । तथापि वह परमात्मा द्रव्य शुद्ध द्रव्याथिकनय की अपेक्षा न नष्ट होता है न उत्पन्न होता है।
___ अथवा संसारी जीव की अपेक्षा जब देव आदि रूप विभाव-द्रव्य-पर्याय उत्पन्न होती है तब ही मनुष्य आदि रूप पर्याय नष्ट होती है । तथा वह जीव द्रव्य निश्चय से न उपजा है, न विनष्ट है । इसी तरह पुद्गल द्रव्य पर जब विचार किया जाय तो मालूम होगा कि दो अणु का स्कन्ध, चार अणु का स्कन्ध आदि स्कन्धरूप स्वजातीय विभाव-द्रव्य पर्याय जब कोई उत्पन्न होती है तब पूर्व पर्याय को नाश करके ही पैदा होती है। तो भी