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[ पक्यणसारो अन्वय सहित विशेषार्थ-(वच्वं) द्रव्य (खलु) निश्चय से (एकम्मि चेव समये) एक ही समय में परिणमन करने वाले (संभवठिविणाससण्णिद.हिं) उत्पाद स्थिति व नाश के भावों से (समवे) एक रूप है अर्थात् अभिन्न है (तम्हा) इसलिये (दव्य) द्रव्य (यु) प्रगट रूप से (तत्तिदयं) उन तीन रूप है ।
आत्मा नामा द्रव्य जब सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक निश्चल और विकार-रहित अपने आत्मा के अनुभवमय लक्षण वाले वीतरागचारित्र की अवस्था से उत्पन्न होता है अर्थात् जब सम्यग्दृष्टि और ज्ञानी आत्मा में वीतरागचारित्र को पर्याय का उत्पाद होता है तब ही रागादिरूप पर्याय का जो परद्रव्यों के साथ एकता करके परिणमन कर रहा था, नाश होता है और उसी समय इन दोनों उत्पाद और व्यय के आधाररूप आत्मा द्रव्य की अवस्थारूप पर्याय से ध्रौव्यपना है। इस तरह वह आत्मद्रव्य अपने ही उत्पाद व्यय ध्रौव्य को पर्यायों से एक रूप है या अभिन्न है। यही बात निश्चय से है। ये तीनों पर्याय मौसुमत की तरह मिन्न-भिन्न समय में नहीं होती हैं किन्तु एक ही समय में होती हैं । जैसे जब अंगुली को टेढा किया जावे तब एक ही समय में टेढ़ेपने की उत्पत्ति और सीधेपन का नाश तथा अंगुलीपने का धौव्य है । इसी तरह जब कोई संसारी जीव मरण करके ऋजुगति से एक ही समय में जाता है तब जो समय मरण का है वही समय ऋजुगति प्राप्ति का है तथा वह जीव अपने जीवपने से विद्यमान है हो । तैसे ही जब क्षीणकषाय नाम के बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में केवलज्ञान की उत्पति होती है तब ही अज्ञानपर्याय का नाश होता है तथा वीतरागी आत्मा को स्थिति है ही। इसी तरह जब अयोगकेवली के अन्त समय में मोक्ष होता है तब जिस समय मोक्ष पर्याय का उत्पाद है तब ही चौदहवें गुणस्थान को पर्याय का नाश है तथा दोनों ही अवस्थाओं में आत्मा ध्रुवरूप है ही। इस तरह एक ही समय में उत्पाद व्यय धौव्य सिद्ध होते हैं। संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि से भेद होते हुए भी प्रदेशों की अपेक्षा अभेद है, इसलिये द्रव्य प्रगट रूप से उत्पाद व्यय प्रौव्य स्वरूप है । जैसे यहां आत्मा में चारित्र पर्याय की उत्पत्ति और अचारित्रपर्याय का नाश समझाते हुए तीनों ही भंग अभेदपने से दिखाए गए हैं, ऐसे ही सर्व द्रव्यों को पर्यायों में भी जानना चाहिये, ऐसा अर्थ है ॥१०२॥
इस तरह उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप द्रव्य का लक्षण है । इस व्याख्यान की मुख्यता से तीन गाथाओं में तीसरा स्थल पूर्ण हुआ।