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पक्यणसारो
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छोड़कर सर्व प्रकार से निर्मल केवलज्ञान गुण की अवस्था को परिणमन कर जाता है इस कारण से जो गुण की पर्यायें होती हैं ये भी द्रव्य ही हैं, पूर्व सूत्र में कहे प्रमाण केवल द्रव्य-पर्यायें ही द्रव्य नहीं हैं अथवा संसारी जीव द्रव्य मति स्मृति आदि विभावज्ञानगुण की अवस्था को छोड़कर श्रुतज्ञानादि विभावज्ञानगुण रूप अवस्था को परिणमन कर जाता है ऐसा होकर भी जोब द्रव्य ही है । अथवा पुद्गल द्रव्य अपने पहले के सफेद वर्ण आदि गुण पर्याय को छोड़कर लाल आदि गुण पर्याय में परिणमन करता है ऐसा होकर श्री पुद्गल द्रव्य ही है। अथवा आम का फल अपने हरे गुण को छोड़कर वर्ण गुण को मीत पर्याय में परिणमन कर जाता है तो भी आम्र फल ही है । इस तरह यह भाव है कि गुण की पर्यायें भी द्रव्य ही हैं ॥ १०४ ॥
इस तरह स्वभावरूप या विभावरूप द्रव्य की पर्यायें तथा गुणों को पर्यायें नय की पेक्षा से द्रव्य का लक्षण हैं । ऐसे कथन को मुख्यता से दो गाथाओं से चौथा स्थल पूर्ण
गा।
अथ ससाध्ययोरनर्थान्तरत्वे युक्तिमुपन्यस्यति —
ण हववि जवि सद्दवं असधुन्वं हवदि तं कहं दव्वं ।
हवदि पुणो अण्णं वा तम्हा दव्वं सयं सत्ता ॥ १०५ ॥ न भवति यदि सद्द्रव्यमसद्ध्रुवं भवति तत्कथं द्रव्यम् ।
भवति पुनरन्यद्वा तस्माद्रव्यं स्वयं सत्ता ॥ १०५ ॥
यदि हि द्रव्यं स्वरूपत एव सन्न स्यात्तदा द्वितयो गतिः असद्वा भवति, सत्तातः मावा सवति । तत्रासद्भव धौव्यस्यासंभवादात्मानमधारयद्द्रव्यमेवास्तं गच्छेत् । सत्तातः मव सत्तामन्तरेणात्मानं धारयतावन्मात्रप्रयोजनां सत्तामेवास्तं गमयेत् । स्वरूपतस्तु यस्य संभवावात्मानं धारयद्रव्यमुद्गच्छेत् । सत्तातोऽपृथग्भूत्वा चात्मानं धारमात्र प्रयोजनां सत्तामुद्गमयेत् । ततः स्वयमेव द्रव्यं सत्वेनाभ्युपगन्तव्यं, भावभावऔर स्वेनान्यत्वात् ॥ १०५ ॥
भूमिका -- अब सत्ता और द्रव्य के अभिन्नपने में ( प्रदेश भेव न होने में ) युक्ति करते हैं
पार्थ -- [ यदि ] यदि [ द्रव्यं ] द्रव्य [सत् न भवति ] ( स्वरूप से ही ) सत् न हो तो +
+ सत्ता का कार्य इतना ही है कि वह द्रव्य को विद्यमान रखे। यदि द्रव्य सत्ता से भिन्न रहकर भी स्थिर फिर ख़ता का प्रयोजन ही नहीं रहता, अर्थात् सत्ता के अभाव का प्रसंग आ जायगा ।