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[ पवयणसारो
तत्प्रत्यया प्रतीतिरुन्मज्जति । तस्यामुन्मज्जत्यामयुत सिद्धत्वोत्थमर्थान्तरत्वमुन्मज्जति । तवापि तत्पर्यायत्वेनोमज्जज्जलराशेर्जलकल्लोल इव द्रव्यान्न व्यतिरिक्तं स्यात् एवं सति स्वयमेव सद्द्रव्यं भवति । यस्त्वेवं नेच्छति स खलु परसमय एव द्रष्टव्यः ॥६६॥
भूमिका – अब, द्रव्यों से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति होने का और द्रव्य से सत्ता का अर्थान्तरत्य (अन्य भिन्न पदार्थ) होने का खण्डन करते हैं । (अर्थात् ऐसा निश्चित करते हैं कि किसी द्रव्य से अन्य द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती और द्रव्य से अस्तित्त्व कोई पृथक् पदार्थ नहीं है) :द्रव्य [स्वभाव - सिद्धं ] स्वभाव से सिद्ध और [ सत् इति ] ऐसा [जिना: ] जिनेन्द्रदेव ने [ तत्त्वतः ] यथार्थतः [ समाख्यात इस प्रकार [आगमत: ] आगम से [ सिद्ध ] सिद्ध है नहीं मानता [ सः ] वह [हि] वास्तव में
अन्वयार्थ – [ द्रव्यं ]
( स्वभाव से ही ) 'सत्' है, वन्तः ] कहा है, [ यथा ] जो [ न इच्छति ] ( इसको
[ यः ]
)
[
प रसमयः ]
पर
समय है ।
टीका - वास्तव में थ्यों से द्रव्यान्तरों की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि सर्व थ्यों के स्वभाव सपना है ( सर्व द्रव्य, पर-द्रव्य को अपेक्षा बिना, अपने स्वभाव से ही सिद्ध हैं) उनको स्वभावसिद्धता तो उनको अनादिनिधनता है, क्योंकि अनादिनिधन अन्य साधन की अपेक्षा नहीं रखता। वह (द्रव्य ) गुणपर्यायात्मक अपने स्वभाव को ही - जो कि मूलसाधन है, धारण करके स्वयमेव सिद्ध और सिद्धि वाला हुआ वर्तता है । जो द्रव्यों में उत्पन्न होता है वह तो द्रव्यान्तर नहीं है, ( किन्तु ) कादाचित्कता ( अनित्यता) के होने से वह पर्याय है, जैसे- द्विअणुक इत्यादि तथा मनुष्य इत्यादि । ब्रव्य तो अनवधि ( मर्यादा रहित ) त्रिसमय अवस्थायी (त्रिकालस्थायी ) है, ( इसलिये ) वंसा ( कादाचित्क-क्षणिक-अनित्य ) नहीं है ।
अब इस प्रकार - जैसे द्रव्य स्वभाव से ही सिद्ध है उसी प्रकार ( वह ) 'सत् है' ऐसा भी वह स्वभाव से ही सिद्ध है, ऐसा निर्णय हो, क्योंकि सत्तात्मक ऐसे अपने स्वभाव से निष्पन्न निष्पत्तिमत् भाव वाला है - ( द्रव्य 'सत्' है ऐसा भाव ब्रश्य के सत्तास्वरूप स्वभाव का ही बना हुआ है ) । द्रव्य से अर्थान्तरभूत सत्ता की उत्पत्ति नहीं है, कि जिसके समवाय से वह द्रव्य 'सत्' हो । ( इसी को स्पष्ट समझाते हैं ) -
प्रथम तो सत् के ( द्रव्य के ) और सत्ता के युत सिद्धता से अर्थान्तरत्व नहीं है, क्योंकि दण्ड और दण्डी की भांति उनके सम्बन्ध में युतसिद्धता दिखाई नहीं देती। ( दूसरे )