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पवयणसारो ]
[ २१७ पूर्व पीठिका—आगे इस द्वितीय अधिकार की सूची लिखते हैं--
इसके आगे "सत्ता संबढेदे" इत्यादि गाथा सूत्र से जो पूर्व में संक्षेप से सम्यग्दर्शन का व्याख्यान किया था, उसी को यहाँ विमान पदार्थों के व्याख्यान के द्वारा एकसौ तेरह गाथाओं में विस्तार से व्याख्यान करते हैं। अथवा दूसरी पातनिका यह है कि पूर्व में जिस ज्ञान का व्याख्यान किया था उसी ज्ञान के द्वारा जानने योग्य पदार्थो को अब कहते हैं । यहां इन एकसौ तेरह गाथाओं के मध्य में पहले ही "तम्हा तस्स णमाई" इस गाथा को आदि लेकर पाठ के क्रम से पैतीस गाथाओं तक सामान्य ज्ञेय पदार्थ का व्याख्यान है। उसके पीछे 'दध्वं जीवमजीवं' इत्यादि उन्नीस गाथाओं तक विशेष ज्ञेय पदार्थ का व्याख्यान है । उसके पीछे "सपदेसेहिं समग्गो लोगो" इत्यादि आठ गाथाओं तक सामान्य भेद की भावना है फिर "अत्थित्तणिच्छिदस्स हि" इत्यादि इक्यावन गाथाओं तक विशेष भेद की भावना है। इस तरह इस दूसरे अधिकार में समुदाय पातनिका है ।
अब यहाँ सामान्य ज्ञेय के व्याख्यान में पहले ही नमस्कार गाथा है फिर द्रव्य गुण १ पर्याय की व्याख्यान गाथा है। तीसरी स्वसमय परसमय को कहने वाली गाथा है। चौथी
व्य की सत्ता आदि तीन लक्षणों को सूचना करने वाली गाथा है, इस तरह पीठिका नाम के पहले स्थल में स्वतन्त्र रूप से गाथायें चार हैं। उसके पीछे "सब्भावो हि सहावो' इत्यादि चार गाथाओं तक सत्ता के लक्षण के व्याख्यान की मुख्यता है फिर "ण भवो । मंगविहीणो' इत्यादि तीन गाथाओं तक उत्पाद व्यय ध्रौव्य लक्षण के कथन की मुख्यता * फिर "पाडुब्भवदि य अण्णो" इत्यादि दो गाथाओं से द्रव्य की पर्याय के निरूपण की
व्यता है। फिर "ण हवदि जदि सव्वं" इत्यादि चार गाथाओं से सत्ता और द्रव्य का अभेद है इस सम्बन्ध में युक्ति को कहते हैं। फिर “जो खलु दवसहाओ" इत्यादि सत्ता और द्रव्य में गुण गुणी सम्बन्ध है ऐसा कहते हुए पहली गाथा, द्रव्य के साथ गुण और मियों का अभेद है इस मुख्यता से "णस्थि गुणोत्ति य कोई" इत्यादि दूसरी ऐसी दो
हन्त्र गाथाएं हैं। फिर द्रव्य का द्रव्याथिकनय से सत् का उत्पाद होता है इत्यादि कथन रते हुए “एवं बिह' इत्यादि गाथाएं चार हैं। फिर "अस्थित्ति य" इत्यादि एक सूत्र से सनंगी का व्याख्यान है। इस तरह समुदाय से चौबीस गाथाओं से और आठ स्थलों से का निर्णय करते हैं ।