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पत्रयणसारो ]
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स्थायिन्योत्तरीयत्वावस्थया श्रीव्यमालम्बमानं श्रीव्येण लक्ष्यते । न च तेन सह स्वरूपने
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जति स्वरूपत एव तथाविद्यत्वमवलम्बते । तथैव तदेव द्रव्यमप्येककालमुत्तरावस्थयोश्पद्यमानं प्रासनावस्थया व्ययमानमवस्थायिन्या द्रव्यत्वावस्थया धौव्यमालम्बमानं धौव्येपण लक्ष्यते न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । यथैव च सदेवोत्तरीयं विस्तारविशेषात्मकंगु लक्ष्यते । न च तैः सह स्वरूपभेवमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्यमवलम्बते । तथैव तदेव द्रव्यमपि विस्तारविशेषात्मकैगुणलक्ष्यते । न च तैः सह रूपमेतजति स्वरूप एव तथाविधत्वमवलम्बते । यथैव च तदेवोत्तरीयमायतविशेषात्मकः पर्यायवतभिस्तन्तुभिर्लक्ष्यते । न च तैः सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्यमवलम्बते । तथैव तदेव द्रव्यमप्यायतविशेषात्मकैः पर्यायलक्ष्यते । न च तैः सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते ॥ ६५ ॥
भूमिका- - अब द्रव्य का लक्षण बतलाते हैं
अन्वयार्थ – [ अपरित्यक्तस्वभावेन ] स्वभाव को छोडे बिना [ यत् ] जो [ उत्पादव्ययवत्वसम्बद्धम् ] उत्पाद-व्यय-धौन्य संयुक्त है [च] तथा [ गुणवत् सपर्यायं ] गुणयुक्त और पर्यायसहित है, [ तत् ] उसे [ द्रव्यम् इति ] 'द्रव्य' ऐसा [ब्रुवन्ति ] कहते हैं ।
टीका---- यहां ( इस विश्व में ) वास्तव में जो स्वभावमेव किये बिना उत्पाद-व्यय धौथ्य त्रयसे और गुण पर्यायद्वय से लक्षित होता है, वह द्रव्य है । इनमें से ( स्वभाव, उत्पाद, व्यय, धौव्य गुण और पर्याय में से) वास्तव में द्रव्य का स्वभाव अस्तित्वसामान्यरूप अन्वय' है, अस्तित्व को तो दो प्रकार का आगे कहेंगे - १. स्वरूप अस्तित्व २. सादृश्य अस्तित्व । उत्पाद, प्रादुर्भाव (प्रगट होना- उत्पन्न होना) है, व्यय, प्रच्युति ( नष्ट होना ) है, धौम्य, अवस्थिति ( टिकना) है, गुण, विस्तार - विशेष हैं। वे सामान्य विशेषात्मक' होने से दो प्रकार के हैं। इनमें अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अन्यत्व, पर्यायत्व, सर्वगतत्व, अगस्व भोक्तृत्व, अगुरुलघुत्व इत्यादि सामान्य गुण हैं । अवगाह - हेतुत्व, गतिनिमितता, स्थितिकारणत्व, वर्तनायतनत्त्व, रूपादिमत्व, चेतनत्व इत्यादि विशेष गुण हैं। पर्याय नायत, विशेष हैं। वे पूर्व ही (६३वीं गाथा की टीका में ) कही गई चार प्रकार की हैं।
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१. अस्तित्व सामान्यरूप अन्वय है, ऐसा एकरूप भात्र द्रव्य का स्वभाव है। अर्थात् विशेष-पर्यायों से निरपेक्ष धारावाही सामान्य स्वरूप | ( अन्वय एकरूपता, सादृष्यभाव ) । २. जो गुण एक से अधिक द्रव्यों में पाया जाम वह सामान्य है । जो मात्र एक ही द्रव्य में पाया जाय वह विशेष है ।