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[ पवयणसारों उत्थानिका-आगे कहते हैं कि शब्द रूप द्रव्यश्रुत व्यवहारनय से ज्ञान है । निश्चय करके अर्थ जानने रूप भावभुत ही ज्ञान है । अथवा आत्मा की भावना में लवलीन पुरुष निश्चय श्रुतकेवली है, ऐसा पूर्व सूत्र में कहा है, अब व्यवहार श्रुतकेवली को कहते हैं अथवा ज्ञान के साथ जो श्रुत की उपाधि है उसे दूर करते हैं---
अन्वय सहित विशेषार्थ-(सुत्त) द्रव्यश्रुत (पोग्गल-दव्वप्पगेहि वयणेहि) पुद्गल द्रव्यमयी दिव्य ध्वनि के वचनों से (जिणोचविठं) जिन भगवान् के द्वारा उपदेश किया गया है। (हि) निश्चय करके (सज्जाणणा) उस द्रव्यश्रुत के आधार से जो जानपना है (गाणं) सो अर्थज्ञान रूप मावश्रुत शान है । (य) और (सुत्तस्स) उस द्रव्यश्रुत को भी (जाणणा) जानपना या ज्ञान गंजा (भणिया) व्यनहार नय से कही गई है।
भाव यह है कि जैसे निश्चय से यह जीव शुद्ध-बुद्ध एकस्वभाव रूप है, पीछे व्यवहारनय से जीव नर-नारक आदि रूप भी कहा जाता है । तैसे निश्चय से ज्ञान सर्व यस्तओं को प्रकाश करने वाला अखंड एक प्रतिभासरूप कहा जाता है, सो ही ज्ञान फिर व्यवहारनय से मेघों के पटलों से आच्छावित सूर्य की अवस्था विशेष को तरह कम पटल से आच्छादित अखंड एक ज्ञानरूप होकर मतिजान श्रुतजान आदि नामवाला हो जाता है ॥३४॥
अथात्मज्ञानयोः क करणताकृतं भेदमपनुदति ।
जो जाणदि सो गाणं ण हवदि गाणेण जाणगो आदा । णाणं परिणमदि सयं अट्ठा जाणव्यिा सव्वे ॥३५॥
यो जानाति तज्ज्ञानं शायक आत्मा।
ज्ञानं परिणमते स्वयमर्था ज्ञानस्थिता सर्वे ॥३५॥ अपृषाभूतकत करणत्वशक्तिपारमैश्वर्ययोगित्वादात्मनो य एव स्वयमेव जानाति स एव ज्ञानमन्तौनसाधकतमोष्णस्वशक्तेः स्वतंत्रस्य जातवेवसो दहनक्रियाप्रसिद्धेहष्णव्यपदेशयत् । न तु यया पृथावर्तिना यात्रेण लादको भवति देवदत्तस्तथा ज्ञानेन ज्ञायको भवत्यात्मा। तथा सत्युभयोरचेतनत्वमचेतनयोः संयोगेऽपि न परिच्छित्तिनिष्पत्तिः । पृथक्त्ववर्तिनोरपि परिच्छेदाभ्युपगमे परपरिच्छेवेन परस्य परिच्छित्तिभूतिप्रभृतीनां च परिच्छित्तिप्रसूतिरनकुशा स्यात् । किंच-स्वतोऽव्यतिरिक्तसमस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतं ज्ञानं स्वयं परिणममानस्य, कार्यभूससमस्तज्ञेयाकारकारणीभूताः सर्वेऽर्था ज्ञानवर्तिन एव कथंघिद्भवन्ति, कि ज्ञातज्ञान विभागक्लेशकल्पनया ॥३५॥