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पवयणसारो ]
[ १६३ अर्थात्-जीव दया, वम, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सन्तोष, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, तप ये सब शील (जीघ स्वभाव के परिवार हैं।
श्री वीरसेनस्वामी ने भी धवल ग्रन्थ में कहा है-"करुणाए कारणं कम्मं करणे त्ति कि ण बुत्तं ? ण करणाए जोषसहावस्स फम्मणिदतबिरोहायो। अकरुणाए कारणं कम्मं वत्तन्वं ? ण एस दोसो, संजमघादि-फम्माणं फलभावेण तिस्से अखभुवगमादो।" शंका-करुणा का कारण भूत करुणा फर्म है, यह क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं, फरणा जीव का स्वभाव है, अतएव उसे कर्म-जनित मानने में विरोध आता है।
शंका-तो फिर अकरुणा का कारण कर्म कहना चाहिये ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उसे संयमघातिया कमो के फलरूप से स्वीकार किया गया है।
अथ मोहक्षपणोपायान्तरमालोचयति--
जिणसत्थादो अछे पच्चक्खादीहि बुज्झदो णियमा। खोयदि 'मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिवव्वं ॥८६॥
जिनशास्त्रात् अर्थान् प्रत्यक्षादिभिर्बुध्यमानस्यनियमात् ।
क्षीयन्ते मोहोपचयः सस्मात् शास्त्रं समध्येतव्यम् ।।८५॥ पत्किल द्रव्यगुणपर्यायस्वभावेनाहंतो ज्ञानादात्मनस्तथा ज्ञानं मोहक्षपणोपायत्वेन प्राक प्रतिपक्षम् । तत् खलपायान्तरमिदमपेक्षते । इदं विहितप्रथमभूमिकासंक्रमणस्य सर्वज्ञोपजतया सर्थतोऽप्यबाधितं शाब्बं प्रमाणमाक्रम्य क्रीडतस्तत्संस्कारस्फुटोकृतविशिष्टसंवेदनशक्तिसंपवःसहृदयहृदयानंदोभेददायिना प्रत्यक्षेणान्येन था तदविरोधिना प्रमाणजातेन तत्त्वतः समस्तमपि वस्तुजातं परिच्छिन्दतः क्षीयत एषातत्त्वाभिनिवेशसंस्कारकारी मोहोपचयः। अतो हि मोहक्षपणे परमं शब्दब्रह्मोपासनं भावज्ञानावष्टम्भवृद्धीकृतपरिणामेन सम्पगधीयमानमुपायान्तरम् ॥८६॥
भूमिका-अब, मोह के नाश के दूसरे उपाय का विचार करते हैं
अन्वयार्थ— [जिनशास्त्रात् ] जिन शास्त्र से (जिनेन्द्र द्वारा प्रणीत) [प्रत्यक्षादिभिः] (तथा) प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से [अर्थान् ] पदार्थों को [बुध्यमानस्य] जानने वाले (पुरुष)
१. मोहोवचओ (ज० वृ०)। २. समाहिदब्बं (ज० ७०)।
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