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[ पवयणसारी तात्पर्यवृत्ति अथ निर्दोषिपरमात्मप्रणीवपदार्थ श्रद्धानमन्तरेण श्रमणो न भवति, तस्माच्छुद्धोपयोगलक्षणधर्मोऽपि न संभवतीति निश्चिनोति
सासंबद्ध महाससासंबधन सहिताम् एदे एतान् पूर्वोक्तशद्धजीवादिपदार्थान् । पुनरपि कि विशिष्टान् ? सविसेसे विशेषसत्तावान्तरसत्तास्वकीयस्वरूपसत्ता तया सहितान् जो हि व सामण्णे सद्दादि यः कर्ता द्रव्यश्रामण्ये स्थितोऽपि न श्राद्धत्ते हि स्फुट ण सो समणो निजशुद्धात्मरुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वपूर्वकपरमसामायिकसंयमलक्षणश्रामण्याभावात्स श्रमणो न भवति । इत्थंभूतभावश्रामण्याभावात् ततो धम्मो ण संभववि तस्मात्पूर्वोक्तद्रव्यश्रमणत्सकाशानिरुपरागशुद्धात्मानुभूतिलक्षणधर्मोऽपि न संभवतीति सूत्रार्थः ।।६।।
उत्थानिका--आगे यह निश्चय करते हैं कि दोषरहित अरहंत परमात्मा द्वारा कहे हुए पदाथों के श्रद्धान के बिना कोई श्रमण या साधु नहीं हो सकता है ऐसे श्रद्धारहित साधु में शुद्धोपयोग लक्षण को रखने वाला धर्म भी संभव नहीं है--
___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो) जो कोई जीव (हि) निश्चय से (सामण्णे) द्रध्य रूप से साधु अवस्था में विराजमान होकर भी (सत्तासंबंद्ध सविसेसे) महासत्ता के संबंध रूप सामान्य अस्तित्व सहित तथा विशेष सत्ता या अवान्तर सत्ता या अपने स्वरूप को सत्ता सहित विशेष अस्तित्त्व सहित (एदे) इन पूर्व में कहे हुए शुद्ध जीव आदि पदार्थों को (ण सद्दहदि) नहीं श्रद्धान करता है (सो समणो ण) वह अपने शुद्ध आत्मा की रुचि रूप निश्चय सम्यग्दर्शनपूर्वक परम सामायिक संयम लक्षण को रखने वाले साधुपने के बिना भाव साधु नहीं है, इस तरह भाव साधुपने के अभाव से (तत्तो धम्मो ण संभवदि) उस पूर्वोक्त द्रव्य साधु से वीतराग शुद्धात्मानुभव लक्षण को धरने वाला धर्म भी नहीं पालन हो सकता है, यह सूत्र का अर्थ है ॥६१॥
___ अथ 'उपसंपयामि सम्म जत्तो णियाणसंपत्ती' इति प्रतिज्ञाय 'चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति णिद्दिट्छो' इति साम्यस्य धर्मत्वं निश्चित्य 'परिणमदि जेण दन्वं तक्कालं तम्मयं त्ति पण्णत्तं, तम्हा धम्मपरिणको आदा धम्मो मुणयन्त्रो' इति यदात्मनो धर्मत्त्वमासूत्रयितुमुपक्रान्तं, यत्प्रसिद्धये च 'धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो पाचदि णिवाणसुह' इति निर्वाणसुखसाधनशुद्धोपयोगोऽधिकर्तुमारब्धः, शुभाशुभोपयोगी च विरोधिनौ निर्वस्ती, शुद्धोपयोगस्वरूपं चोपणितं, तत्प्रसावजी चात्मनो ज्ञानानन्दौ सहजो समुद्योतयता संवेदन-स्वरूपं सुखस्वरूपं च प्रपञ्चितम् ।।
तदधुना कथं कथमपि शुद्धोपयोगप्रसादेन प्रसाध्य परमनिःस्पृहमात्मतुप्तां पारमेश्