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पवयणसारो ]
अर्थवं मोहक्षपणोपायभूतजिनेश्वरोपदेशलाभेऽपि पुरुषकारोऽर्थक्रियाकारीति पौरुषं व्यापारयति
जो मोहरागदोसे णिहदि उबलम्भ' जोण्हमुवदेसं । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥८॥
यो मोहरागद्वेषानिहन्ति उपलभ्य जैनमुपदेशम् ।
___सः सर्वदुःखमोक्ष प्राप्नोत्यचिरेण कालेन ।।८।। इह हि वाघीयसि सदाजवंजधपथे कथमप्यमुं समुपलभ्यापि जैनेश्वरं निशिततरवारिधारापथस्थानीयमुपदेशं य एव मोहरागद्वेषाणामुपरि दृढतरं निपातयति स एव निखिलदुःखपरिमोक्षं क्षिप्रमेवाप्नोति, नापरो व्यापारः करवालपाणिरिव । अत एव सर्वारम्भेण मोहक्षपणाय पुरुषकारे निषोदामि ॥१८॥
भूमिका-अब, इस प्रकार मोह क्षय के उपायभूत जिनेश्वर के उपदेश की प्राप्ति होने पर भी पुरुषार्थ अर्थ-क्रियाकारी (प्रयोजन-भूत क्रिया का करने वाला) है, इसलिये पुरुषार्थ करते हैं
___अन्वयार्थ-[यः] जो [जैनं उपदेशं] जिनेन्द्र के उपदेश को [उपलभ्य ] प्राप्त करके [मोहरागद्वेषान्] मोह, राग, द्वेष को | निहंति ] हनता है [नाश करता है | (स | वह [अचिरेण कालेन] अल्पकाल में [सर्वदुःखमोक्षं] सब दुःखों से छुटकारे को [प्राप्नोति] पाता है।
टीका-वास्तव में इस अति-दीर्घ संसार मार्ग में किसी भी प्रकार से जिनेन्द्रदेव के इस तीक्ष्ण असिधारा (तलवार की धार) समान उपदेश को प्राप्त करके भी, जो कोई मोह राग द्वेष के ऊपर अतिवृढता-पूर्वक हाथ में तलवार लिये हुए (पुरुष) की भांति प्रहार करता है वही सब दुःखों से छुटकारे को शीघ्र ही प्राप्त होता है। अन्य (कोई) ज्यापार (प्रयत्न-क्रिया) समस्त दुःखों से परिमुक्त नहीं करता (जसे मनुष्य के हाथ में तीक्ष्ण तलवार होने पर भी वह शत्रुओं पर अत्यन्त वेग से उसका प्रहार करे तो ही वह शत्रु-सम्बन्धी दुःख से मुक्त होता है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार इस अनादि संसार में महा भाग्य से जिनेश्वर देव के उपदेश रूपी तीक्षण तलवार को प्राप्त करके भी जो जीव मोह रागद्वेष रूपी शत्रुओं पर अति दृढता-पूर्वक उसका प्रहार करता है, वही सर्व दुःखों से मुक्त होता है-अन्यथा नहीं)। इसलिये सम्पूर्ण प्रयत्न से मोह का क्षय करने के लिये मैं पुरुषार्थ में स्थित होता हूँ ॥८॥
१. उघलद्ध (ज० दृ०) । २. पावइ (ज. वृत)।