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[ पवयणसारो
अथात्मनः दृष्टान्तेन सुखस्वभावत्वं दृढयति-
सयमेव जहादिनचो' तेजो उण्हो य देवदा णमसि । सिद्धो वि तहा णाणं सुहं च लोगे
तहा देवो ॥ ६८ ॥
स्वययेव यथादित्यतेज उष्ण च देवता नभसि । सिद्धोऽपि तथा ज्ञानं सुखञ्च लोके तथा देवः ||६८||
यथा खलु नभसि कारणान्तरमनपेक्ष्यँव स्वयमेव प्रभाकरः प्रभूतप्रभाभारभाव - स्वरूप विकस्वरप्रकाशशालितया तेजः, यथा च कादाचित्कौष्ण्यपरिणतायः पिण्डयन्नित्यमेवष्ण्यपरिणामापन्नत्वादुष्णः, यथा च देवगतिनामकर्मोदयानुवृत्ति वशवर्तिस्वभावतया देव: तथैव लोके कारणान्तरमनपेक्ष्यंव स्वयमेव भगवानात्मापि स्वपरप्रकाशनसमर्थनिविसथानन्तशक्ति सहजसंवेदनतादात्म्यात् ज्ञानं तथैव चात्मतृप्तिमुपजातपरिनिवृतिप्रतितानाकुलत्वसुस्थितत्वात् सौख्यं तथैव चासन्नात्मतत्त्वोपलम्भलब्धवर्ण जनमानसशिलास्तम्भो कीर्णसमुदीर्णद्युतिस्तुतिवियोग दिव्यात्मस्वरूपत्वाद्द वः । अतोऽस्यात्मनः सुखसाधनाभासविषयेः पर्याप्तम् ॥ ६८ ॥ इति आनन्दप्रपञ्चः ।
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भूमिका – अब आत्मा के सुखस्य भावपने को दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं-अन्वयार्थ – [ यथा ] जैसे [ नभसि ] आकाश में [ आदित्यः ] सूर्य [स्वयमेव ] अपने आप ही [तेज: ] तेज [ उष्णः ] उष्ण [च] और [ देवता ] देव है [लोके ] लोक में [ सिद्धः अपि ] सिद्ध भी [ स्वयमेव ) [ ज्ञानं ] सुख [ तथा ] और [ देवः ] देव है ।
[ तथा ] उसी प्रकार ज्ञान [च] और [ सुखं ]
टीका - जैसे वास्तव में आकाश में, अन्य कारण की अपेक्षा बिना स्वयमेव हो सूर्य ( १ ) अति अधिक प्रभा समूह से चमकते हुए स्वरूप के द्वारा विकसित प्रकाशयुक्त होने से तेज है, (२) कभी-कभी उष्णता रूप परिणत लोहे के गोले की भाँति, सदा ही उष्णता परिणाम को प्राप्त होने से उष्ण है और (३) देवगति नाम कर्म के उदय की अनुवृत्ति (धारावाहिक उदय) के वशवर्ती स्वभाव से देव है, इसी प्रकार लोक में अन्य कारण को अपेक्षा रखे बिना हो भगवान् आत्मा स्वयमेव हो ( १ ) स्वपर की प्रकाशित करने में समर्थ यथार्थ अनन्त शक्तियुक्त सहज-संवेदन के साथ तादात्म्य होने से ज्ञान है, (२) आत्म-तृप्ति से उत्पन्न होने वाली परिनिवृत्ति ( उत्कृष्ट उपेक्षा वीतरागता ) से प्रवर्तमान
१. जहाच्चो (ज० १०) । २. लोये (ज० वृ० ) । *योगिदिध्यात्म' इति पाठान्तरम् ।