________________
१८० ।
[ पवयणसारो यत्न करने वाले यतियों में श्रेष्ठ जो गणधराविक उनमें भी प्रधान है, तथा (तिलोयस्स गुरु) अनन्तज्ञान आदि महान गुणों के द्वारा जो तीन लोक का भी गुरु है, उसे (पणमंति) द्रव्य और भाव नसस्कार के द्वारा प्रणाम करते हैं तथा पूजते हैं व उसका ध्यान करते हैं (ते) वे उसकी सेवा के फल से (अक्खयं सोक्वं जति) परम्परा करके अविनाशी अतीन्द्रियसुख को पाते हैं, ऐसा सूत्र का अर्थ है। यहां आचार्य ने उपासक के लिये यह शिक्षा दी है कि 'जो जैसा भावं सो तसा हो जावे" अविनाशी अनंत अतींद्रियसुख का निरंतर लाभ आत्मा की शुद्ध अवस्था में होता है। उस अवस्था की प्राप्ति का उपाय यद्यपि साक्षात् शुद्धोपयोग में तन्मय होकर निर्विकल्पसमाधि में वर्तन करना है तथापि परम्परा से उसका उपाय अरहंत और सिद्ध जमाकर उनको नमस्कार करना, पूजन करना, स्तुति करना आदि है ॥७६-२॥ अथ कथं मया विजेतम्या मोहवाहिनीत्युपायमालोचयति
जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु 'जादि तस्स लयं ॥८॥
यो जानात्यहन्तं द्रव्यत्वगुणत्वपर्ययत्वैः ।।
सः जानात्यात्मानं मोहः खलु याति तस्य लयम् ।।१०।। यो हि नामार्हन्तं द्रव्यत्वगुणत्वपर्ययत्वैः परिच्छिनत्ति स खल्वात्मानं परिस्छिनत्ति, उभयोरपि निश्चयेनाविशेषात् । अर्हतोऽपि पाककाष्ठागतकार्तस्वरस्येव परिस्पष्टमात्मरूपं, ततस्तत्परिच्छेदे सस्मिपरिच्छेदः । तत्रान्बयो द्रव्यं, अन्वयविशेषणं गुणः, अन्वयव्यतिरेक: पर्यायाः। तत्र भगवत्यर्हति सर्वतो विशुद्धे त्रिभूमिकमपि स्वमनसा समय मुत्पश्यति । यश्चेततोऽयमित्यन्वयस्तद्रध्यं, यच्चान्वयाश्रितं चैतन्यमिति विशेषणं स गुणः, ये चंकसमयमात्रायतकालपरिणामतया परस्परपरावृत्ता अन्वयव्यतिरेकास्ते पर्यायाश्चिद्विवर्तननन्थय इति यावत् । अथैवमस्य त्रिकालमप्येककालमाकलयतो मुक्ताफलानोव प्रलम्बे प्रालम्बे चिद्विवर्ताश्चेतन एव संक्षिप्य विशेषणविशेष्यत्ववासनान्तर्धानावलिमानमिव प्रालम्बे चेतन एव चैतन्यमन्तहितं विधाय केवलं प्रालम्बमिव केवलमात्मानं परिच्छिन्दतस्तदुत्तरोत्तरक्षणक्षीयमाणकर्तृकर्मक्रियाविभागतया निःक्रियं चिन्मानं भायमधिगतस्य जातस्य मणेरिवाकम्पप्रवृत्तनिर्मलालोकस्यावश्यमेव निराश्रयतया मोहतमः प्रलीयते । यद्येवं लब्धो मया मोहवाहिनीविजयोपायः ॥५०॥
-
----
-..
.
--
१. जाइ (ज० १०)।