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पवयणसारो ]
[ १८५ के द्वारा आप्त---अरहंत के स्थान को जानकर पीछे लगते सुद्ध आत्मा के स्वरूप में ठहरकर मोक्ष प्राप्त करता है । इस कारण से यहां आप्त और आत्ममूढता के निराकरण के लिए ज्ञान कंठिका को कहा है इतना होविशेष है ॥१॥
सूचना-इस गाथा में आचार्य ने स्पष्ट रूप से चारित्र की आवश्यकता को बता दिया है।
अथायमेवैको भावद्भिः स्वयमनुभूयोपदशितो निःश्रेयसस्य पारमार्थिकः पन्या इति मति व्यवस्थापयति
सब्वे वि य अरहंता तेण विधाणेण' खविदकम्मंसा । किच्चा "तधोवदेसं णिव्वादा ते णमो तेसि ॥२॥
सर्वेऽपि चाहन्तस्तेन विधानेन क्षपितकमांशाः ।।
कृत्वा तथोपदेशं निर्वृत्तास्ते नमस्तेभ्यः ॥२॥ यतः खल्बतीतकालानुभूतक्रमप्रवृत्तयः समस्ता अपि भगवन्तस्तीर्थकराः प्रकारान्तरस्यासंभवादसंभावितद्वैतेनामुनवैकेन प्रकारेण क्षपणं कर्माशाना स्वयमनुभूय, परमाप्ततया परेषामप्यायत्यामिशनीत्वे वा मुमुक्षणां तथैव तदुपदिश्य निःश्रेयसमध्याश्रिताः । ततो नायवर्त्म निर्धाणस्येत्यवधार्यते । अलमथवा प्रलपितेन । व्यवस्थिता मतिर्मम, ममो भगवडूपः ॥२॥
भूमिका-अब, (पूर्वोक्त गाथाओं में णित यह ही एक, भगवन्तों के द्वारा स्वयं अनुभव करके दिखलाया गया मोक्ष का सच्चा मार्ग है, इस प्रकार बुद्धि को व्यवस्थित (निश्चित करता है
अन्वयार्थ— [सर्वेऽपि च) सब ही [अर्हन्तः] अरहन्त [तेन विधानेन] उसी विधि से क्षपितकर्माशाः] कर्मा शों का क्षय करके (और) [तथा] उसी प्रकार [उपदेश कृस्वा] उपदेश को करके [ते निवृताः] वे निर्माण को प्राप्त हुए | नमः तेभ्यः] उनके लिये नमस्कार हो।
टीका—क्योंकि वास्तव में भूतकाल में क्रमशः हुए सब ही तीर्थकर भगवान्, प्रकारान्तर का असंभव होने से जिसमें दंत संभव नहीं है, ऐसे इस एक ही प्रकार से कर्माशों के क्षय को स्वयं अनुभव करके (तथा) परम आप्तता के कारण भविष्यकाल में अथवा इस (वर्तमान) काल में अन्य मुमुक्षुओं के भी इसी प्रकार से उस (कर्मक्षय) का उपदेश
१. विहाणेण (ज० ००)। २. तहोवदेसं (जव०)।