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[ पत्रयणसारो
इस तरह आप्त और आत्मा के स्वरूप में मूढता या अज्ञानता को दूर करने के लिये सात गाथाओं से दूसरी ज्ञानकंठिका पूर्ण की।
अथ शुद्धात्मलाभपरिपन्यिनो मोहस्य स्वभावं भूमिकाश्च विभावयति — दव्वादिसु मूढो भावो जीवस्स हवदि मोहो ति ।
खुम्भदि तेणुच्छष्णो 'पप्पा रागं व दोसं वा ॥ ८३ ॥ द्रव्यादिकेषु मूढो भावो जीवस्य भवति मोह इति ॥
क्षुभ्यति तेनावच्छन्नः प्राप्य रागं वा द्वेषं वा ॥८३॥
यो हि द्रव्यगुणपर्यायेषु पूर्वमुपर्वाणतेषु पीतोन्मत्तकस्येव जीवस्य तत्त्वाप्रतिपत्तिलक्षणो मूढो भावः स खलु मोहः तेनावच्छम्नात्मरूपः सन्नायमात्मा परद्रव्यमात्मद्रव्यत्वेन परगुणमात्मगुणतया परपर्यायानात्मपर्यायभावेन प्रतिपद्यमानः प्ररूढदृढतरसंस्कारतया परद्रव्यमेवाहरहरुपाददानो दग्धेन्द्रियाणां रुचिवशेनाद्वैतेऽपि प्रवर्तितद्वतो रुचितारुचितेषु विषयेषु रागद्वेषाखुपश्लिष्य प्रचुरतरम्बोमाररयाहतः सेतुबन्ध इव द्वेधा विदार्यमाणो नितरां क्षोभमुपैति । अतो मोहरागद्वेषभेवास्त्रिभूमिको मोहः ॥८३॥
भूमिका – अब, शुद्धात्म लाभ के लुटेरे मोह के स्वभाव को और भेदों को व्यक्त करते हैं
अन्वयार्थ – [ जीवस्य ] जीव का [ द्रव्यादिकेषु | द्रव्यादिकों में [ मूढः भावः ) जो मूढभाव अर्थात् अज्ञानभाव है [ इति मोहः भवति | वह मोह है [ तेन अवच्छन्नः ] उस मोह से व्याप्त हुआ ( यह जीव ) [ रागं वा द्वेषं प्राप्य ] राग अथवा द्वेष को प्राप्त करके [ क्षुभ्यति ] क्षुब्ध होता है ।
टीका-पूर्व ( गाथा ८० में ) वर्णित द्रव्य गुण पर्यायों में धतूरा खाये हुए पुरुष की भांति जीव के जो तव में अप्रतिपत्ति लक्षण ( वास्तविक स्वरूप को अश्रद्धा रूप ) मूढभाव ( अज्ञानभाव ) है, वह वास्तव में मोह है । उस मोह से आच्छादित हो गया है निज रूप जिसका, ऐसा आच्छादित होता हुआ यह आत्मा ( १ ) पर ब्रव्य को आत्म द्रव्य रूप से, परगुण को आत्म-गुण रूप से और पर-पर्याय को आत्म-पर्याय भाव से समझता हुआ (अंगीकार करता हुआ, ( २ ) अतिरूद्ध दृढतर संस्कार के कारण से पर-द्रव्य को ही दिन प्रतिदिन (सदर) ग्रहण करता हुआ, (३) ( निन्दनीय ) इन्द्रियों की रुचि के दश से अद्वैत में भी द्वैतरूप प्रवतत होते हुए रुचिकर और अरुचिकर विषयों में रागद्वेष को करके, अति
१. पय्या (ज० बु० ) 1