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पवयणसारो ]
[ १८८६
प्रचुर जल-समूह के वेग से प्रहार को प्राप्त ( खण्डों को प्राप्त) सेतुबन्ध (पुल) को भांति ( रागद्वेष रूप ) दो भागों में खण्डित हुआ, अत्यन्त क्षोभ को प्राप्त होता है । इस कारण मोह, राग और द्वेष के भेद से मोह तीन प्रकार का है ||८३ ||
तात्पर्यवृत्ति
अथ शुद्धात्मोपलम्भप्रतिपक्षभूत मोहस्य स्वरूपं भेदोश्च प्रतिपादयति
tree शुद्धात्माद्रिध्येषु तेषां द्रव्याणामनन्तज्ञानाद्यस्तित्वादिविशेषसामान्य लक्षण गुणेषु शुद्धात्मपरिणतिलक्षणसिद्धत्वादिपर्यायेषु च यथ संभवं पूर्वोपवणतेषु वक्ष्यमाणेषु च मूढो माघो एतेषु पूर्वी द्रव्यगुणपर्यायेषु विपरीताभिनिवेशरूपेण तत्त्वसंशयजनको मूढो भाव: जीवस्स हवदि मोहोत्ति इत्थंभूतो भावो जीवस्य दर्शनमोह इति भवति । खुक्ष्मदि तेणुच्छण्णो तेन दर्शनमोहेनावच्छ्न्नो झम्पितः सन्तक्षुभितात्मतत्त्वविपरीतेन क्षोभेण क्षोभं स्वरूपचलनं विषयं गच्छति । किं कृत्वा ? पथ्या रागं व air निर्विकारशुद्धात्मनो विपरीतमिष्टानिष्टेन्द्रियविषयेषु हर्षविषादरूपं चारित्रमोहसंज्ञं रागद्वेषं वा प्राप्य चेति । अनेन किमुक्तं भवति । मोहो दर्शनमोहो रागद्वेषद्वयं चारित्रमोहश्चेति त्रिभूमिको मोह इति ॥ ८३॥
उत्पानिका - आगे शुद्ध जात्मा के लाभ के विरोधी मोह के स्वरूप और भेदों को
कहते हैं
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अवन्य सहित विशेषार्थ - ( दध्यादिएस) शुद्ध आत्मा आदि द्रव्यों के अनन्तज्ञानादि य अस्तित्व आदि विशेष और सामान्य गुणों में तथा शुद्ध आत्मा की परिणति रूप सिद्धत्व आदि पर्यायों में जिनका यथा सम्भव पहले वर्णन हो चुका है व जिनका आगामी वर्णन किया जायगा इन सब द्रव्य गुण पर्यायों में विपरीत अभिप्राय रखकर ( मूढो भावो ) तत्वों में संशय रूप अज्ञानभाव को उत्पन्न करने वाला ( जीवस्त मोहो त्ति हवदि) इस संसारी जीव के दर्शन - मोहनीय कर्म है ( तेणोच्छष्णो ) इस वर्शन - मोहनीयकर्म से आच्छादित हुआ यह जीव ( रागं व दोसं वा पय्या) विकार रहित शुद्धात्मा से विपरीत इष्ट अनिष्ट इन्द्रियों के विषयों में हर्ष विषाद रूप चारित्रमोहनीय नाम के रागद्वेष भाव को पाकर ( खुम्भदि) क्षोभ रहित आत्मतत्व से विपरीत क्षोभ के कारण अपने स्वरूप से चलकर
वर्तन करता है । इस कथन में यह बतलाया गया कि दर्शनमोह का एक और चारित्र मोह के दो भेद राग, द्वेष इन तीन भेवरूप मोह है ॥८३॥
अथानिष्टकार्यकारणत्वमभिधाय त्रिभूमिकस्यापि मोहस्य क्षयमासूत्रयति -
मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स । जायदि ' विविधो बंधो तम्हा ते संखवइदव्वा ॥ ८४ ॥ १. विविहो ( ज० वृ० ) ।