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क्यणसारी ।
[ १८३ की भावना के सन्मुख होकर अर्थात् विकल्प-सहित स्वसंवेदनज्ञान में परिणाम करते हुए तसे ही आगम की भाषा से अधःकरण अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण नाम के परिणाम विशेषों के बल से जो विशेषभाव दर्शनमोह के अभाव करने में समर्थ हैं, अपने आत्मा में जोड़ता है। उसके पीछे निविकल्प स्वरूप की प्राप्ति के लिए जैसे पर्याय रूप से मोती के दाने, गुण रूप से सफेदी आदि अभेदनय से एक हार रूप ही मालूम होते हैं, तैसे पूर्व में कहे हुए द्रव्य पुण पर्याय अभेद-नय से आत्मा ही है, इस तरह भावना करते-करते दर्शनमोह का अन्धकार नष्ट हो जाता है ॥५०॥ अर्थवं प्राप्तचिन्तामणेरपि मे प्रमादो दस्युरिति जागति
जीवो ववगदमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्म । जहदि जति रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं ॥८१।।
जीवो व्यपगतमोह उपलब्धवांतत्त्वात्मनः सम्यक् ।
जहाति यदि रागद्वेषौ स आत्मानं लभते शुद्धम् ॥१॥ एवमुपवणितस्वरूपेणोपायेन मोहमपसार्यापि सम्यगात्मतत्त्वमुपलभ्यापि यदि नाम रागद्वषो निर्मूलयति तदा शुद्धमात्मानमनुभवति । यदि पुनः पुनरपि तावनुवर्तेते तदा प्रमावतश्त्रतया लुण्ठितशुद्धात्मतत्त्वोपलम्भचिन्तारत्नोऽन्तस्ताम्यति । अतो मया रागद्वेषनिषेधायात्यन्तं जागरितव्यम् ॥८॥
भूमिका-अब, इस प्रकार प्राप्त कर लिया है चिन्तामणि रत्न जिसने ऐसे मेरे मी प्रमाद चौर हैं-यह विचार कर जागृत रहता है
अन्वयार्थ---[व्यपगतमोहः] दूर हो गया है मोह जिसका और [आत्मनः सम्यक तत्त्वं उपलब्धवान] आत्मा के सम्यक् (वास्तविक) तत्त्व को प्राप्त हुआ-सा [जीवः | जीव [यदि] जो [रागद्वेषौ | राग द्वेष को [जहाति] छोड़ता है तो [स:] वह [शुद्धं आत्मान] शुद्ध आत्मा को [लभते] प्राप्त कर लेता है।
टीका-इस प्रकार जिस उपाय का स्वरूप वर्णन किया है, उस उपाय के द्वारा मोह को दूर करके भी तथा सम्यक् आत्मतत्त्व को प्राप्त करके भी यदि (जीव) राप द्वेष को निर्मल करता है तो शुद्ध आत्मा को अनुभव करता है । और यदि पुनः पुनः (राग-द्वेष) को अनुसरण करता है, तो प्रमाद की अधीनता से शुद्धात्म-तत्त्व की प्राप्तिरूप चितामणिरत्न लुट गया है जिसका, ऐसा वह जीव अन्तरंग में होव को प्राप्त होता है। इसलिये. मुझको राग द्वेष को दूर करने के लिये अत्यन्त जागृत रहना चाहिये ॥