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। पवयणसारो (शुभोपयोग परिणति बेला में पूरा हुआ, मोह को सेना भी वशवर्तिता को दूर नहीं कर डालता (तो) जिसे महा-दुःख संकट निकट है, ऐसा वह निश्चय से कैसे शुद्ध आत्मा को प्राप्त कर सकता है ? (नहीं कर सकता) इस कारण से मेरे द्वारा मोह की सेना पर विजय प्राप्त करने के लिये कमर कसी गई है ॥७६॥
तात्पर्यवृत्ति अथ शुभाशुभोपयोगनिवृत्तिलक्षणशुद्धोपयोगेन मोक्षो भवतोति पूर्वसूत्रे भणितम् । अतु द्वितीयज्ञानकण्ठिकाप्रारम्भे शुद्धोपयोगाभावे शुद्धारमानं न लभते, इति तमेवार्थ व्यतिरेकरूपेण दृढयति
चत्ता पायारंभ पूर्व गृहवासादिरूपं पापारम्भं त्यक्तवा समुठिो वा सुहम्मि चरियम्हि सम्यगुपस्थितो वा पुनः क्व ? शुभचरित्रे ण जहादि जदि मोहाबो न त्यजति यदि चेन्मोहरागद्वेषान् ण लहवि सो अपगं सुद्धन लभते स आत्मानं शुद्धमिति । इतो विस्तर:-कोऽपि मोक्षार्थी परमोपेक्षालक्षणं परमसामायिक पूर्व प्रतिज्ञाय पश्चाविषयसुखसाधक शुभोपयोगपरिणत्या मोहितान्तरङ्गः सन् निर्विकल्पसमाधिक्षणणपूर्वोक्तसामायिकचारित्राभावे सति निमोहशुद्धात्मतत्त्वप्रतिपक्षभूतान मोहादोन्न त्यजति यदि चेतहि जिनसिद्धसदृशं निजशुद्धात्मानं न लभत इति सूत्रार्थः ॥७६॥
उत्थानिका-आगे पूर्व सूत्र में यह कह चुके हैं कि शुभ तथा अशुभ उपयोग से रहित शुद्ध उषयोग से मोक्ष होता है। अब यहां दूसरी ज्ञान कठिका के व्याख्यात के प्रारम्भ में शुद्धोपयोग के अभाव में वह आत्मा शुद्ध आत्मीक स्वभाव को नही प्राप्त करता है ऐसा कहते हुए उस ही पहले प्रयोजन को व्यतिरेकपने से दृढ़ करते हैं
___ अन्वय सहित विशेषार्थ--(पामारंभं चत्ता) पहले गृह में वास करना मादि पाप के आरम्भ को छोड़कर (वा सुहम्मि चरियम्हि समुठियो) तथा शुभचारित्र में भले प्रकार आवरण करता हुआ (जदि मोहादी ण जहवि) यदि कोई मोह, रागद्वेषावि भाषों को नहीं त्यागता है (सो अप्पगं सुद्धं ण लहदि) सो शुद्ध आत्मा को नहीं पाता है। इसका विस्तार यह है कि कोई भी मोक्ष का अर्थी पुरुष परम उपेक्षा या वैराग्य के लक्षण को रखने वाले परम सामायिक करने की पूर्व में प्रतिज्ञा करके पीछे विषयों के सुख के साधन के लिये जो शुभोपयोग को परिणतियां हैं उनमें परिणमन करके अंतरंग में मोही होकर यदि निर्विकल्पसमाधिलक्षणमयी पूर्व में कहे हुए मोह रहित शुद्ध आत्मतत्व के विरोधी मोह आदिकों को नहीं छोड़ता है, तो वह जिन या सिद्ध के समान अपने आत्मस्वरूप नहीं पाता है ।।७६॥
तात्पर्यवति अथ शुद्धोपयोगाभावे यादृशं जिनसिद्धस्वरूपं न लभते तमेव कथयति
तबसंजमप्पसिद्धो सुद्धो सग्गापयग्गमगकरो। अमरासुरिवाहिवो देवो सो लोयसिहरत्वो ॥७९-१॥