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पवयणसारो ]
श्री समन्तभद्राचार्य ने स्वयम्भूस्तोत्र में भक्ति करते हुए यह भाव झलकाया है, जैसे
स विश्वमा धमोचित: सातो तर विडमरजपुतारं गतः
पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनो जिनो जितक्षुल्लकवा विशासनः ॥५॥ वह जगत् को देखने वाले, साधुओं से पूजनीय पूर्ण ज्ञानमय देह के धारी, निरंजन व अल्पज्ञानी अन्यवादियों के मत को जीतने वाले श्री नाभिराआ के पुत्र श्री वृषभ जिनेन्द्र मेरे चित्त को पवित्र करो। भावों को निर्मलता होने से जो शुभ राग होता है, वह तो अतिशय पुण्यकर्म को बांधता है, जो मोक्ष-प्राप्ति में सहकारी कारण होते हैं। जैसे तीर्थकर, उत्तमसंहनन आदि । शुभोपयोग में वर्तन करने से उपयोग अशुभोपयोग से बचा रहता है तथा यह शुभोपयोग शुद्धोपयोग में पहुंचने के लिए सीढ़ी है । इसलिये शुद्धोपयोग की भावना करते हुए शुभोपयोग में वर्तन करना चाहिये। वास्तव में शुभोपयोग सम्यगदृष्टि के ही होता है । तात्पर्य यह है कि शुद्धोपयोग को इस काल में उपादेय मानकर उसी की भावना से प्राप्ति के लिये अरहंत-भक्ति आदि शुभोपयोग के मार्ग में वर्तना चाहिये ।। अथ शुभोपयोगसाध्यत्वेनेन्द्रियसुखमाख्याति
जुत्तो सुहेण आदा तिरियो वा माणुसो व देवो वा । भूदो तावदि कालं लहदि' सुहं इन्दियं विविधं ॥७॥
युक्तः शुभेन आत्मा तिर्यग्वा मानुषो वा देवो वा ।
भूतस्तावत्कालं लभते सुखमैन्द्रियं विविधम् ।।७।। अयमात्मेन्द्रियसुखसाधनीभूतस्य शुभोपयोगस्य सामर्थ्यात्तदधिष्ठानभूतानां तिग्मानुषदेवत्वभूमिकानामन्यतमा भूमिकामवाप्य यावत्कालमवतिष्ठते, तावत्कालमनेक प्रकारमिन्द्रियसुखं समासादयतीति ॥७०॥
भूमिका-अब, शुभोपयोग के साध्यपने से इन्द्रियसुख को कहते हैं
अन्वयार्थ-- [शुभेन युक्तः] शुभ परिणाम से युक्त [आत्मा] आत्मा | तिर्यक् ] तिर्यञ्च [वा] अथवा [मानुषः] मनुष्य [वा] अथवा [देवः ] देव [भूतः] होता हुआ [तावत्कालं] उतने समय तक [विविधं] अनेक प्रकार के [ऐन्द्रियं] इन्द्रिय-सम्बन्धी [सुख ] सुख को [लभते] पाता है।
टीका-यह आत्मा इन्द्रिय-सुख के साधनभूत शुभोपयोग की सामर्थ्य से, उसके (इन्द्रिय सुख के) स्थानभूत (आधारभूत) तियंञ्च, मनुष्य और देवत्व की भूमिकाओंमें से
१. लहइ (ज० वृ०)। २. विविहं (ज० व०) ।