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पवयणसारो ]
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सुहिदा ) स्वसंवेदन से उत्पन्न जो पारमार्थिक सुख उसकी श्रद्धा के अभाव से अनेक प्रकार की तृष्णा से दुःखी होते हुए व ( आमरणं दुक्ख संतत्ता ) मरण पर्यंत दुःखों से संतापित रहते हुए ( विषयोक्खाणि) विषयों से रहित परमात्मा के सुख से विलक्षण विषय के सुखों को (इच्छति चाहते रहते हैं (अणुहवंति व ) और भोगते रहते हैं ।
यहाँ यह अर्थ है कि जैसे तृष्णा की तीव्रता से प्रेरित होकर जोंक जंतु खराब रुधिर की इच्छा करता है तथा उसको पीता है, इस तरह करती हुई जोंक मरण पर्यंत दुःखी रहती है अर्थात् खराब रुधिर पीते-पीते उसका मरण हो जाता है परन्तु उसकी तृष्णा नहीं मिटती, तसे अपने शुद्ध आत्मा के अनुभव को न पाने वाले अर्थात् श्रद्धा न करने वाले जीव भो, जैसे मृग तृषातुर होकर बार-बार सूखी नदी के मैदान में जल जान जाता है, परन्तु तृषा न बुझाकर दुःखी हो रहता है, इसी तरह जीव विषयों को चाहते तथा अनुभव करते हुए मरण पर्यंत दुःखो रहते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि अज्ञानी जीवों में तुष्णा रूपी रोग को पैदा करने के कारण से पुण्यकर्म वास्तव में दुःख का ही कारण है ।। ७५ ।। अथ पुनरपि पुण्यजन्यस्येन्द्रियसुखस्य बहुधा दुःखत्वमुद्योतयतिपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं ।
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जं इंदिएहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तथा ॥ ७६ ॥
परं बाधासहितं विच्छिन्नं बन्धकारणं विषमम् ।
यत् इन्द्रियैः लब्धं तत्सौख्यं दुःखं एवं तथा ।। ३६ ।।
सपरत्वात् बाधासहितत्वात् विच्छिन्नत्वात् बंधकारणत्वात् विषमत्वाच्च पुण्यजन्यमपीन्द्रियसुखं दुःखमेव स्यात् । सपरं हि सत् परप्रत्ययत्वात् पराधीनतया, बासासहितं हि सबशनायो बन्यावृषस्यादिभिस्तृष्णाव्यक्तिभिश्पेतत्वातृ अत्यन्ताकुलतया बिच्छिन्तं हि सबसद्वद्योदयमच्या विससद्वद्योदयप्रवृत्ततयाऽनुभथत्वादुभूतविपक्षतया बन्धकारणं हि सद्धिषयोपभोगमार्गानुलग्न रागादिदोष सेनानुसार संगच्छ मानधन कर्मपांसुपर लत्या बुदकं दुःसहतया, विषमं हि सदभिवृद्धिपरिहाणिपरिणतत्वादत्यन्तविसंष्ठुलतया च दुःखमेव भवति । अथैवं पुण्यमपि पापबद्दुःख साधनमायालम् ॥७६॥
भूमिका – अब, फिर भी पुण्यजन्य इन्द्रियसुख के अनेक प्रकार से दुःखपने को प्रगट करते हैं
अन्वयार्थ – [ यत् ] जो [ इन्द्रियः लब्धं ] इद्रियों से प्राप्त होता है [ तत् सौख्यं ]
१. बाधासहियं (ज० वृ० ) । २. इंदियेहि (ज० बृ० ) ।
२, तहा (ज० वृ० ) ।