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पवयणसारो ]
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अनुभूत भोगों की इच्छा रूप निदानबन्ध को आदि लेकर नाना प्रकार के मनोरथरूप विकल्पजालों से रहित जो परमसमाधि उससे उत्पन्न जो सुखामृत रूप तथा सर्व आत्मा के प्रदेशों में परम आल्हाद को पैदा करने वाली एक आकार स्वरूप परमसमरसीभावमघी और विषयों की इच्छा रूप अग्नि से पंदा होने वाले जो परमदाह उसको शांत करने वाली ऐसी अपने स्वरूप में तृप्ति को नहीं प्राप्त किया है ।
तात्पर्य यह है कि जो ऐसी विषयों की तृष्णा आसक्ति की तरह कौन विषय भोगों में प्रवृत्ति करे ? करते देखे जाते हैं तब अवश्य यह मालूम होता है कि पैदा कर देने से दुःख का कारण है ।।७४ ||
अथ पुण्यस्य दुःखबीज विजयमाधोषयति
न होवे तो गंबे रुधिर में और जब वे बहिर्मुखी पुण्यकर्म ऐसे जीवों के
जोंकों की जीव प्रवृत्ति तृष्णा को
ते पुण उदिण्णता दुहिदा तहाहिं विसयसोक्खाणि ।
इच्छंति 'अणुभवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता ॥७५॥ ते पुनरुदीर्णं तृष्णाः दुखितातृष्णाभिविषय सोख्याति । इच्छन्त्यिनुभवन्ति च कामरण दुःखसंतप्त
अथ ले पुनस्त्रिदशावसानाः कृत्स्नसंसारिणः समुदीर्णतृष्णाः पुण्यनिर्वर्तिताभिरपि तृष्णाभिर्दुः खबीजतयाऽत्यन्तदुःखिताः सन्तो मृगतृष्णाभ्य इवाम्भांसि विषयेभ्यः सौख्यामिलन्ति । तद्दुःखसन्तातापवेगमसहमाना अनुभवन्ति च विषयान् जलायुक्का इय तावद्यावत् कयं यान्ति । यथा हि जलायुकास्तृष्णाबीजेन विजयमानेन दुःखाङ्कुरेण क्रमशः समाक्रम्यमाणा दुष्टकीलालमभिलषन्त्यस्तदेवानुभवन्त्यश्चाप्रलयात् क्लिश्यन्ते । एवममी अपि पुण्यशालिनः पापशालिन इव तृष्णाबोजेन विजयमानेन दुःखाङ्कुरेण क्रमतः समाक्रम्यमाणा विषयानभिलषन्तस्तानेवानुभवन्तश्चाप्रलयात् क्लिश्यन्ते । अतः पुण्यानि सुखाभासस्य दुःखस्यैव साधनानि स्युः ॥७५॥
भूमिका -- अब ( निरतिशय) पुण्य के दुख के बीज-रूप विजय को घोषित करते हैंअन्वयार्थ – [ पुनः ] और फिर [ उदीर्णतृष्णाः ते ] जिनके तृष्णा उदय हुई है, ऐस जीव [ तृष्णाभिः दुःखिता ] तृष्णाओं के द्वारा दुखी होते हुए [विषय - सौख्यानि इच्छन्ति ] विषयों को चाहते हैं [च] और | दुःखसन्तप्ताः ] दुखों से संतप्त होते हुए ( दुख दाह को सहन न करते हुए ) [आमरण] मरण पर्यन्त ( उन विषयों को ) | अनुभवति ] भोगते हैं ।
टीका- अब जिनके तृष्णा उदय हुई है ऐसे देवपर्यन्त वे समस्त संसारी जीव पुण्य से रची हुई होने पर भी दुःख के बोजभूत तृष्णाओं के द्वारा अत्यन्त दुखी होते हुए, मृग
(१) अणुहवंति ( ० वृ० ) ।