________________
पवयणसारी ]
[ १६७ कुलिसाउहचवधरा देवेन्द्राश्चक्रवतिनपत्र कारः सुहोवोगध्यहि भोगेहि शभोपयोगजन्यभोगः कृत्वा वेहादीणं विद्धि करंति विकुर्वणारूपेण देहपरिवारादीनां वृद्धि कुर्वन्ति । कथंभूताः सन्तः ? सुहिया इवाभिरवा सुखिता इवाभिरला आसक्ता इति ।
अयमत्रार्थः—यसरमातिशयतृप्तिमुत्पादकं विषयतृष्णाबिच्छित्तिकारकं च स्वाभाविकसुखं सदलभ माना दुष्टशोणिते जलयूका इवासक्ताः सुखाभासेन देहादोनां दृद्धि कुर्वन्ति । ततो ज्ञायते तेषां स्वाभाविक सुखं नास्तीति ॥७३।।
उत्थानिका—आगे व्यवहारनय से पुण्यकर्म देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि के पद देते हैं इसलिये उनकी प्रशंसा करते हैं, सो इसलिये बताते हैं कि आगे इन्हीं उत्तम फलों के आधार से मिथ्याष्टियों के तृष्णा की उत्पत्ति रूप दुःख दिखाया जाएगा।
अन्वय सहित विशेषार्थ—(कुलिसाउहचक्कधरा) देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदिक (सहिदा इव अभिरदा) मानों सखी हैं आसक्त होते हुए अर्थात श्रद्धा करते हुए (सहोवओगप्पगेहि) भोगेहि) शुभोपयोग के द्वारा पैदा हुये व प्राप्त हुये भोगों से विक्रिया करते हुए (देहादीणं) शरीर परिवार आदि की (विद्धि करेंति) बढ़ती करते हैं।
यहां यह अर्थ है कि जो परम अतिशयरूप तृप्ति को देने वाला विषयों की तृष्णा को नाश करने वाला स्वाभाविक सुख है उसकी श्रद्धा न करते हए जीव, जैसे जोंके विकार वाले खून में आसक्त हो जाती हैं वैसे आसक्त होकर सुखाभास में सुख जानते हुए देह आदि की वृद्धि करते हैं। इससे यह जाना जाता है कि उन इन्द्र व चक्रवर्ती आदि बड़े पुण्यवान जीवों के भी स्वाभाविक सुख को श्रद्धा नहीं है ॥७३॥
अर्थवमभ्युपगतानां पुण्यानां दुःखबोजहेतुत्वमुद्भावयत्तिजदि संति हि पुण्णाणि य परिणामसमुन्भवाणि विविहाणि । जणयंति विसयतण्हं जीवाणं देवदंताणं ॥७॥
यदि सन्ति हि पुण्यानि च परिणामसमुद्भवानि विविधानि ।
जनयन्ति विषयतृष्णां जीवानां देवतान्तानाम् ।।७४|| यदि नामैवं शुभोपयोगपरिणामकृतसमुत्पत्तोन्यनेकप्रकाराणि पुण्यानि विद्यन्ते इत्यभ्युपगम्यते, तदा तानि सुधाशनानप्यवधि कृत्वा समस्तसंसारिणां विषयतृष्णामवश्यमेव समुत्पादयन्ति । न खलु तृष्णामन्तरेण दुष्टशोणित इब जलूकानां समस्तसंसारिणां विषयेषु प्रवृत्तिरवलोक्यते । अवलोक्यते च सा । ततोऽस्तु पुण्यानां तुष्णायतनत्वमबाधितमेव ।।७४॥
भूमिका-अब, इस प्रकार स्वीकार किये गये पुण्यों के दुःख के बीजरूप-हेतुपने को (न्याय से) प्रगट करते हैं