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[ पवयणसारो
सकता है ? अर्थात् किसी भी तरह भिन्न नहीं है । मिथ्यादृष्टि जीव का शुभ व अशुभ उपयोग एक रूप ही है ॥ ७२ ॥
इस तरह स्वतन्त्र चार गाथाओं से प्रथम स्थल पूर्ण हुआ ।
अथ शुभोपयोगजन्यं फलवत्पुष्यं विशेषेण दूषणार्थमम्युपगम्योत्थापयतिकुलिसाउहचक्कधरा सुहोवओगप्पगेहिं भोगेह ।
देहावीणं विद्धि करेंति सुहिदा इवाभिरदा ॥ ७३ ॥ कुलिशायुधचक्रधराः शुभोपयोगात्मकः भोगेः ।
देहादीनां वृद्धि कुर्वन्ति सुखिता इवाभिरताः ॥ ७३ ॥
यतो हि शक्राश्चक्रिणश्च स्वेच्छोपगतं भर्गः शरीरादीन् पुष्णन्तस्तेषु दुष्टशोणित इव जलौकसोऽत्यन्तमासक्ताः सुखिता इव प्रतिभासन्ते । ततः शुभोपयोगजन्यानि फलवन्ति पुण्यान्यवलोषयन्ते ||७३।
भूमिका -- ( जैसे इन्द्रिय-सुख को दुःखरूप और शुभोपयोग को अशुभोपयोग के समान बताया है इसी प्रकार ) अब शुभोपयोग - जन्य फलवाले पुण्य को विशेष रूप से दूषण देने के लिये ( इस गाया में उस पुण्य के अस्तित्व को ) स्वीकार करके ( अगली गाथा में उसको खण्डन करते हैं-
अन्वयार्थ - ( क्योंकि ) [ कुलिशायुधचक्रधराः ] ब्रजधर (इन्द्र) और चक्रधर (चक्रबती) [ शुभोपयोगात्मकः भोगः ] शुभोपयोगमूलक ( पुण्यों के फल रूप) भोगों के द्वारा [ देहादीनां | देहादि की [ वृद्धि कुर्वन्ति ] पुष्टि करते हैं और [ अभिरता: ] ( इस प्रकार ) भोगों में रत होते हुए [ सुखिताः इव ] सुखी - जैसे भासित होते हैं (इसलिये पुण्य विद्यमान अवश्य है ) |
टीका — क्योंकि वास्तव में इन्द्र और चक्रवर्ती, अपनी इच्छानुसार प्राप्त भोगों के द्वारा शरीरादि को पुष्ट करते हैं, (तथा) जैसे गोंचें (जोंकें) हृषित रक्त में अत्यन्त आसक्त वर्तती हुई सुखी-जैसी भासित होती हैं, उनकी तरह उन (पुण्य-जन्य भोगों) में अत्यन्त आसक्त वर्तते हुए, सुखी- जैसे भासित होते हैं । इस कारण से शुभोदयोगजन्य फलवाले पुण्य दिखाई देते हैं (अर्थात् शुभोपयोग का अस्तित्व अवश्य है ) किन्तु ॥७३॥
तात्पर्यवृति
अथ पुण्यानि देवेन्द्रचक्रमर्थ्यादिपदं प्रयच्छन्ति इति पूर्व प्रशंसां करोति | किमर्थम् ? तत्फलाधारेणाग्रे तृष्णोत्पत्तिरूप दुःखदर्शनार्थम् -