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[ पवयणसारो वह पुरुष उस कूप में लगे हुए वृक्ष की शाखा को पकड़ कर लटक जाए जिसकी जड़ को सफेद और काले चूहे काट रहे हों तथा उस वक्ष में मधु मक्खियों का छत्ता लगा हो जिसकी मक्खियाँ उसके शरीर में चिपट रही हों, हाथी वृक्ष को टक्कर पर टक्कर मार रहा हो ऐसी विपत्ति में पड़ा हुआ यदि वह मधु के छत्ते से गिरती हुई मधु बूंद के स्वाद को लेता हुआ अपने को सुखो माने, तो उसको मूर्खता है क्योंकि वह शीघ्र हो कूप में पड़कर मरण को प्राप्त करेगा, यह दृष्टांत ऐसे हैं कि यह संसाररूपी महा वन है जिसमें मिथ्यादर्शन आदि कुमार्ग में पड़ा हुआ कोई जीव मरण रूपी हाथी के भय से त्रासित होता हुआ किसी मनुष्यलोक को प्राप्त हो जिसके नीचे सातवां नरकरूपी अजगर हो व क्रोध, मान, माया, लोभरूप चार सर्प चारों कोनों में बैठे हों, जीव आयु कर्मरूपी शाखा में लटक जाए जिस शाखा की जड़ को शुक्ल कृष्ण पक्षरूपी चूहे निरंतर काट रहे हों व उसके शरीर में मधुमक्खियों के समान अनेक रोग लग रहे हों तथा मरण रूपी हाथी खड़ा हो और वह मधु की बूंद के समान इन्द्रिय विषय के सुख को भोगता हुआ अपने को सुखी माने, सो उसकी अज्ञानता है । विषय सुख दुःख का घर है। ऐसा सांसारिक सुख त्यागने योग्य है, जबकि मोक्ष का सुख आपत्ति-रहित स्वाधीन तथा अविनाशी है, इसलिये ग्रहण करने योग्य है, यह तात्पर्य है ॥७१॥
अर्थवमिन्द्रियसुखस्य वुःखतायां युक्त्यावतारितायामिन्द्रियसुखसाधनीभूतपुण्यनिर्वर्तकशुभोपयोगस्य दुःखसाधनीभूतपापनिर्वर्तकाशुभोपयोगविशेषावविशेषत्वमवतारयति
परणारयतिरियसुरा भजन्ति जवि देहसंभवं दुक्खं । किध' सो सुहो व असुहो उवओगो हववि जीवाणं ॥७२॥
नरनारकतिर्थक्सुराः भजन्ति यदि देहसंभवं दुःखं ।
कथं स शुभो वा अशुभ उपयोगो भवति जोवानाम् ।।७२।। यदि शुभोपयोगजन्यसमुदीर्णपुण्यसंपदस्त्रिदशादयोऽशुभोपयोगजन्यपर्यागतपातकापदो वा नारकादयश्च, उभयेऽपि स्वाभाथिकसुखाभावादविशेषेण पञ्चेन्द्रियात्मकशरीरप्रत्ययं दुःखवानुभवन्ति । ततः परमार्थतः शुभाशुभोपयोगयोः पृथक्त्वव्यवस्था नावतिष्ठते ॥७२॥
भूमिका-इस प्रकार इन्द्रिय-सुख की दुःख-रूपता प्रगट करके अब इन्द्रिय-सुख के साधनभूत पुण्य को उत्पन्न करने वाले शुभोपयोग तथा दुःख के साधनभूत पाप को उत्पन्न करने वाले अशुभोपयोग की अविशेषता को (यानी-दोनों में कुछ अन्तर नहीं है, इस बात को) प्रगट करते हैं
१. किह (ज० वृ०)