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[ पत्रयणेसारो
किसी एक भूमिका को प्राप्त करके जितने समय तक ( उसमें ) ठहरता है, उतने समय तक
अनेक प्रकार के इन्द्रिय-सुख को प्राप्त करता है ॥७०॥
सत्पर्यषुत्ति अथ पूर्वोक्त शुभोपयोगेन साध्यमिन्द्रियसुखं कथयति-
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सुहेण जुत्तो आदा यथा निश्चयरत्नत्रयात्मक शुद्धोपयोगेन युक्तो मुक्तो 'भूत्वाऽन्तकाल - मतीन्द्रियसुखं लभते तथा पूर्वसूत्रोक्तलक्षणशुभोपयोगेन युक्तः परिणतोऽयमात्मा तिरियो वा माणुसो व देवो वा भूवो तिर्यग्मनुष्य देवरूपो भूत्वा तावदि कालं तावत्कालं स्वकीयायुः पर्यन्तं लहइि सुहं इन्दियं fafar इन्द्रियजं विविधं सुखं लभते इति सूत्राभिप्रायः ॥ ७० ॥
उत्थानिका— आगे बताते हैं कि पूर्व गाथा में कथित शुभोपयोग के समय जो पुण्यकर्मबन्ध होता है उसके उदय से इंद्रियसुख प्राप्त होता है ।
अन्वय सहितं विशेषार्थ -- ( सुहेण जुत्तो भादा ) जैसे निश्चयरत्नत्रयमय शुद्धोपयोग से युक्त आत्मा मुक्त होकर अनन्त काल तक अतीन्द्रियसुख को प्राप्त करता है तैसे ही पूर्व सूत्र में कहे हुए शुभोपयोग में परिणमन करता हुआ यह आत्मा ( तिरियो वा माणुसो वा देवो वा सूदो ) तियंच, मनुष्य या देव होकर ( तावदि कालं) अपनी-अपनी आयु पर्यंत (विविहं इंदियं सुहं लहदि) नाना प्रकार इन्द्रियों से उत्पन्न सुख को पाता है । यह इस गाथा का अभिप्राय है ॥७०॥
अर्थवमिन्द्रियसुखमुत्क्षिप्य दुःखत्वे प्रक्षिपति
सोक्खं सहावसिद्धं णत्थि सुराणं पि सिद्धमुवदेसे ।
ते देहवेदणट्टा' रमंति विसएसु रम्मेसु ॥ ७१ ॥ सौख्यं स्वभावसिद्ध नास्ति सुराणामपि सिद्धमुपदेशे ते वेदना रमन्ते विषयेषु रम्येषु ॥७१॥
इन्द्रियसुखभाजनेषु हि प्रधाना दिवौकसः, तेषामपि स्वाभाविकं न खलु सुखमस्ति प्रत्युक्त तेषां स्वाभाविकं दुःखमेवावलोक्यते । यतस्ते पञ्चेन्द्रियात्मकशरीर पिशाचपीडया परवशा भृगुप्रपातस्थानीयान्मनोज्ञ विषयानभिपतन्ति ॥ ७१ ॥
भूमिका – अब इस प्रकार इन्दिय सुख को उठाकर दुःख-रूप में डालते हैं (अर्थात् इन्द्रिय सुख परमार्थ से दुःख ही है, यह बतलाते हैं ) :
अन्वयार्थ – [ उपदेसे सिद्धं ] उपदेश से ( आगम से ) सिद्ध है कि [ सुराणां अपि ] देवों के भी [ स्वभावसिद्धं ] स्वभावसिद्ध [ सौख्यं ] सुख ( आत्मा से उत्पन्न होने वाला
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१. भूत्वाऽयं जीवोऽनन्तकालमतीन्द्रियसुखम् इति पाठान्तरम् ।
२. देहू वेदत्ता ( ज० वृ०) ।