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पवयणसारो ]
[ १७३ उत्थानिका—आगे फिर भी पुण्य से उत्पन्न जो इन्द्रिय सुख होता है, उसको बहुत प्रकार से दुःखरूप प्रकाश करते हैं
___ अन्वय सहित विशेपार्थ-(ज) जो संसारिकसुख (इंदियेहि लद्धं) पांचों इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होता है (तं सोरखं) वह सुख (सपरं) परद्रव्य की अपेक्षा से होता है इसलिये पराधीन है, जब कि पारमाथिकसुख परद्रव्य की अपेक्षा न रखने से आत्मा के अधीन पानी स्वाधीन है। इन्द्रियसुख (वाधासहियं) तीव्र क्षुधा तृणा आदि अनेक रोगों का सहकारी है, जबकि आत्मीक सुख सर्व बाधाओं से रहित होने से अव्याबाध है। इन्द्रियसुख (विच्छिण्णं) साताका विरोधी जो असाताबेदनीयकर्म उसके उदय सहित होने से नाशवंत तथा अन्तर सहित होने वाला है, जबकि अतीन्द्रियसुख असाता के उदय के न होने से निरन्तर विना अन्तर पड़े व नाश हुए रहने वाला है। इन्द्रियसुख (बन्धकारणं) देखे, सुने, अनुभव लिये हुए भोगों की इच्छा को आदि लेकर अनेक खोटे ध्यान के अधीन होने से भविष्य में नरक आदि के दःखों को पैदा करने वाले कर्मबन्ध को बांधने वाला है अर्थात कर्मबन्ध का कारण है, जबकि अतीन्द्रियसुख सर्व अपध्यानों से शून्य होने के कारण से बंध का कारण नहीं है । तथा (विसम) यह इन्द्रियसुख परम उपशम या शान्तभाव से रहित तृप्तिकारी नहीं है अथवा हानि वृद्धि रूप होने से एकसा नहीं चलता किन्तु विषम है, जब कि अतीन्द्रियसुख परम तुप्तिकारी और हानि वृद्धि से रहित है, (तथा दुक्खमेव) इसलिये यह इन्द्रियसुख पांच विशेषण सहित होने से दुःखरूप ही है, ऐसा अभिप्राय है ॥६॥
इस सरह (मिथ्यावृष्टि) जीव के भीतर तृष्णा पैदा करने निमित्त होने से यह पुण्यकर्म दुःख का कारण है, ऐसा कहते हुए दूसरे स्थल में चार गाथाएं पूर्ण हुई। अथ पुण्यपापयोरविशेषत्वं निश्चिन्यन्नुपसंहरति
ण हि मण्णदि जो एवं पत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं । हिंदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो ॥७७॥
न हि मन्यते य एवं नास्ति विशेष इति पुण्यपापयोः ।
हिण्डति घोरमपारं संसार मोहसंछन्नः ।।७७।। एवमुक्तकमेण शुभाशुभोपयोगद्वैतमिव सुखदुःखद्वतमिव च न खलु परमार्थतः पुण्यपापद्वैतमवतिष्ठते, उभयत्राप्मनात्मधर्मत्वाविशेषत्वात् । यस्तु पुनरमयोः कल्याणकालायसनिगडयोरिकाहङ्कारिक विशेषमभिमन्यमानोऽहमिन्द्रपक्षादिसंपदा निदानमिति निर्भरतरं