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पत्रयणसारो ]
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वह मोहक से आच्छादित जीव (घोरं अपारं संसारं हिंडदि ) भयानक और अभव्य की अपेक्षा से अपार संसार में भ्रमण करता है ।
विशेष यह है कि द्रव्यपुष्य और द्रव्यपाप में व्यवहार नय से भेद है, भावपुष्य और भावपाप में तथा पुण्य के फल रूप सुख और दुःख में अशुद्ध निश्चयनय से भेद है । परन्तु शुद्ध निश्चयनय के ये द्रव्यपुण्य पापादिक सब शुद्ध आत्मा के स्वभाव से भिन्न हैं, इसलिये इन पुण्य पापों में कोई भेद नहीं है । इस तरह शुद्ध निश्चयतय से पुण्य व पाप की एकता को जो कोई नहीं मानता है वह इन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, कामदेव आदि के पदों के निमित्त निदान-बन्ध से पुण्य को चाहता हुआ मोह रहित शुद्ध आत्मतत्त्व से विपरीत दर्शनमोह तथा चारित्रमोह से ढका हुआ सोने और लोहे की दो बेडियों के समान पुण्य पाप दोनों से बंधा हुआ संसार रहित शुद्धात्मा से विपरीत संसार में भ्रमण करता
॥७७॥
अर्थवमवधारितशुभाशुभोपयोगाविशेषः समस्तमपि रागद्वेषद्वैतमपहासयन्नशेषदुःखक्षयाय सुनिश्चितमनाः शुद्धोपयोगमधिवसति-
एवं विदित्यो जो दव्वेसु ण रागमेदि दोसं वा ।
उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहुरूभवं दुक्खं ॥ ७८ ॥ एवं विदितार्थीयो द्रव्येषु राममेति द्वेषं वा ।
उपयोगविशुद्धः सः क्षपयति देहोद्भवं दुःखम् ||७८ ॥
यो हि नाम शुभानामशुभानां च भावानामविशेषदर्शनेन सम्यक्परिच्छिन्न वस्तुस्वरूपः स्वपरविभागावस्थितेषु समग्रेषु ससमग्रपर्यायेषु द्रव्येषु रागं द्वेषं चाशेषमेव परिवर्जयति स किलैकान्तेनोपयोग विशुद्धतया परित्यक्तपरद्रव्यालम्बनोऽग्निरिवायः पिण्डादननुष्ठितायः सारः प्रचण्डघनघातस्थानीयं शारीरं दुःखं क्षपयति, ततो ममायमेवैकः शरणं शुद्धोपयोगः ॥ ७८ ॥
भूमिका -- अब इस प्रकार शुभ और अशुभ उपयोग की अविशेषता अवधारित करके समस्त ही राग द्वेष के द्वैत को दूर करते हुए सम्पूर्ण दुःख को क्षय करने के लिये मन बुढ़ निश्चय करने वाला जीव शुद्धोपयोग में निवास करता है, शुद्धोपयोग में निवास करता है, शुद्धोपयोग की शरण लेता है
अन्वयार्थ – [ एवं ] इस प्रकार [विदितार्थः] जान लिया है पदार्थ को जिसने [य] ऐसा जो जीव [ द्रव्येषु ] द्रव्यों में [ रागं वा द्वेषं ] राग अथवा द्वेष को [न एति प्राप्त नहीं होता है, [ उपयोगविशुद्धः ] उपयोग से विशुद्ध [ स ] वह जीव [ देहोद्भवं दुःखं ] पञ्चेन्द्रिय सहित देह से उत्पन्न हुए दुःख को [ क्षपयति ] नाश कर देता है ।