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पक्यणसारो ]
[ १५५ अनाकुलता में सुस्थितता के कारण सौख्य है, और (३) निकट है आत्म तत्त्व की प्राप्ति जिनको ऐसे बुद्धजनों (ज्ञानियों) के मनरूपी शिलास्तम्भ में जिसकी अतिशय युति स्तुति के योग द्वारा दिव्य आत्म स्वरूपवान् होने से देव है। इसलिये इस आत्मा के सुखसाधनाभास विषयों से बस हो ॥६॥ अतीन्द्रियसुख का विस्तार समाप्त हुआ।
तात्पर्यवृत्ति अथात्मनः सुखस्वभावत्वं ज्ञानस्वभावत्वं च पुनरपि दृष्टान्तेन दृढयति
सय मेव जहाइचो तेजो जोहो य देयवा णभसि कारणान्तर निरपेक्ष्य स्वयमेव यथादित्यः स्वपरप्रकाशरूपं तेजो भवति, तथैव च स्वयमेवोष्णो भवति, तथा चाज्ञानिजनानां देवता भवति । क्व स्थित: ? नभसि आकाशे सिद्धो वि तहा णाणं सुहं च सिद्धोपि भगवांस्तथैव कारणान्तरं निरपेक्ष्य स्वभावेनैव स्वपरप्रकाशकं केवलज्ञान, तथैव परमतृप्तिरूपममाकुलत्वलक्षणं सुखं । क्व ? लोये जगति तहा देवो निजशद्वात्मसम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मक निर्विकल्पसमाधि समुत्पन्न सुन्दरानन्दस्यन्दिसुखामृतपानपिपासितानां गणधरदेवादिपरमयोगिनां देवेन्द्रादीनां चासन्नभव्यानां मनसि निरन्तर परनाराध्य, तथैवानिशानादिगुणस्तान स्तुत्य पद्दिव्यमात्मस्वरूप तत्स्वभावत्वातर्थव देवश्चेति । ततो ज्ञायते मुक्तात्मनां विषयैरपि प्रयोजनं नास्तीति ॥६८।। एवं स्वाभावेनैव सुख स्वभावत्वाद्विषया अपि मुक्तात्मनां सुखकारणं न भवन्तीति कथनरूपेण गाथाद्वयं गतम् ।
उत्थानिका-आगे आत्मा सुख स्वभाव वाला भी है ज्ञान स्वभाव वाला भी है इस ही बात को दृढ़ करते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ—(णभसि) आकाश में (सयमेव जहाइच्चो) जैसे दूसरे कारण को अपेक्षा न करके स्वयं ही सूर्य (तेजो) अपने और दूसरे को प्रकाश करने वाला तेज रूप है (उण्हो य) तथा स्वयं उष्णता देने वाला है (देवदा य) तथा देवता है अर्थात् ज्योतिषी देव है अथवा अज्ञानी मनुष्यों के लिये पूज्य देव है (तहा) तैसे ही (लोये) इस लोक में (सिद्धी वि णाणं सुहं च तहा देवो) सिद्ध भगवान् भी दूसरे कारण को अपेक्षा न करके स्वयं ही स्वभाव से स्व-पर-प्रकाशक केवलज्ञान स्वरूप हैं तथा परम तृप्तिरूप निराकुलता लक्षणमय सुखरूप हैं तैसे ही अपने शुद्ध आत्मा के सम्यक श्रद्धान, ज्ञान तथा चारित्ररूप अभेद रत्नत्रयमय निर्विकल्पसमाधि से पंदा होने वाले सुन्दर आनन्द में भोगे हुए सुखरूपी अमृत के प्यासे गणधर देव आदि परम योगियों, इन्द्रादि देवों व अन्य निकट भन्यों के मन में निरन्तर भले प्रकार आराधने योग्य तैसे ही अनंतज्ञान आदि गुणों के स्तवन से स्तुति-योग्य जो दिव्य आत्मस्वरूप-स्वभावमय होने से देवता हैं। इससे जाना जाता है कि मुक्ति प्राप्त आत्माओं को विषयों की सामग्री से भी कुछ प्रयोजन नहीं है। वास्तव में शरीर तथा इन्द्रियों के इस तरह स्वभाव से ही आत्मा सुख स्वभाव है, अतएव