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पवयणसारो
दो गाथाएं पूर्ण हुई। इस तरह आठ गाथाओं से पाचवा स्थल जानना चाहिये। इस सह अठारह गाथाओं से व स्थल से सुख प्रपंच नाम का अन्तर अधिकार पूर्ण हुआ इस तरह पूर्व में कहे प्रमाण "एस सुरासुर" इत्यादि चौदह गाथाओं से पीठिका का वर्णन किया । फिर सात गाथाओं से सामान्यपने सर्वज्ञ की सिद्धि की, फिर तैंतीस गाथाओं से ज्ञानप्रपंच, फिर अठारह गाथाओं से सुख-प्रपंच, इस तरह समुदाय से बहत्तर गाथाओं के द्वारा तथा चार अन्तर- अधिकारों से शुद्धोपयोग नाम का अधिकारपूर्ण किया ।
उत्पानिका --- इसके आगे पचीस गाथा पर्यंत ज्ञानकंठिका चतुष्टय नाम का अधिकार प्रारम्भ किया जाता है । इन पच्चीस गाथाओं के मध्य में पहले शुभ व अशुभ उपयोग में मूढ़ता को हटाने के लिये "देवदजदि गुरु" इत्यादि दश गाथाओं तक पहली ज्ञानकंठिका का कथन हैं। फिर परमात्मा के स्वरूप के ज्ञान में मूढ़ता को दूर करने के लिये "चत्ता पावारम्भं" इत्यादि सात गाथाओं तक दूसरी ज्ञानकंठिका है । अनन्तर द्रव्यगुण पर्याय के ज्ञान के सम्बन्ध में मूढ़ता को हटाने के लिये "दव्वादीएसु" इत्यादि छः गाथाओं तक तीसरी ज्ञानकठिका है। फिर स्व और पर तत्व के ज्ञान के सम्बन्ध में मूढ़ता को हटाने के लिये " णाणप्पगं" इत्यादि दो गाथाओं से चोथी ज्ञानकठिका है। इस चार अधिकार की समुदायपातनिका है। अब यहाँ पहली ज्ञानकंठिका में स्वतन्त्र व्याख्यान के द्वारा चार गाथाएँ हैं । इसके बाद पुण्य जीव के भीतर विपयभोग की तृष्णा को पैदा कर देता है। ऐसा कहते हुए गाथाएं चार हैं । तदन्तर संकोच करते हुए गाथाएँ दो हैं—- इस तरह तीन स्थलतक क्रम से व्याख्यान करते हैं ।
अथ शुभ परिणामाधिकारप्रारम्भः ।
अथेन्द्रियसुख स्वरूपविचारमुपक्रममाणस्तत्साधन स्वरूपमुपन्यस्यति-देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु ।
उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा ॥ ६६ ॥ देवतातिगुरुपूजासु चैव दाने वा सुशीलेषु ।
उपवासादिषु रक्तः शुभोपयोगात्मक आत्मा ॥६६॥
यदायमात्मा दुःखस्य साधनीभूतां द्वेषरूपामिन्द्रियार्थानुरागरूपां चाशुभोपयोगभूमिकामतिक्रम्य देवगुरुयतिपूजा दानशीलोपवासप्रोतिलक्षणं धर्मानुरागमङ्गीकरोति तदेन्द्रियसुखस्य साधनीभूतां शुभोपयोग भूमिकामधिरूढोऽभिलयेत् ॥६६॥
भूमिका - अब, इन्द्रिय सुख स्वरूप के विचार को प्रारम्भ करते हुये उसके कारण ( शुभ परिणाम) के स्वरूप को कहते हैं