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[ पवयणसारो
शाद्विषयाधीनत्वेन परिणम्य सांसारिक सुखं दुःखं वा स्वयमात्मैव भवति न च देह इत्यभिप्रायः । एवं मुक्तात्मनां देहाभावेपि सुखमस्तीति परिज्ञानार्थं संसारिणामपि देहः सुखकारणं न भवतीतिकथनरूपेण गाथाद्वयं गतम् ॥ ६६ ॥
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उत्थानका – अब आगे यहाँ कोई शंका करता है कि मनुष्य का शरीर जिसके नहीं है किन्तु देव का दिव्य शरीर जिसको प्राप्त है, वह शरीर तो उसके लिये अवश्य सुख का कारण होगा | आचार्य इस शंका को हटाते हुए समाधान करते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( एगतेण हि ) सब तरह से निश्चयकर यह प्रगट है कि (देहिस्स) शरीरधारी संसारी प्राणी को (देहो ) यह शरीर ( सभी वा ) स्वर्ग में भी ( सुहं ण कुणदि) सुख नहीं करता है । मनुष्यों को मनुष्य देह तो सुख का कारण नहीं है, यह बात दूर ही है । स्वर्ग में भी जो देवों का मनोश वैकिथिक देह है वह भी विषय वासना के उपाय बिना सुख नहीं करता है । ( आदा) यह आत्मा ( सयं ) अपने आप ही ( विसयवसेण ) विषयों के वश से अर्थात् निश्चय से विषयों से रहित अमूर्त स्वाभाविक सदा आनन्दमयी एक स्वभाव रूप होने पर भी व्यवहार से अनादि कर्म के बंध के वश से विषयों के भोगों के अधीन होने से (सोक्खं या युवखं हवदि) सुख व दुःख रूप परिणमन करके सुख या दुःख रूप हो जाता है शरीर सुख या दुःख रूप नहीं होता है, यह अभिप्राय है । इस तरह मुक्त जीवों के देह न होते हुए भी सुख रहता है, इस बात को समझाने के लिये संसारी प्राणियों को भी देह सुख का कारण नहीं है, ऐसा कहते हुए दो गाथाएं पूर्ण हुई ॥ ६६ ॥
अथात्मनः स्वयमेव सुखपरिणामशक्ति योगित्वाद्विषयाणामकिचित्करत्वं द्योतयत्ति - तिमिरहरा जड़ दिट्ठी जणस्स दीवेण णत्थि काय' ।
तघ सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति ||६७ || तिमिरहरा यदि दृष्टिः जनस्य, दीपेन नास्ति कर्तव्यम् ।
तथा सौख्यं स्वयमात्मा विषयाः किं तत्र कुर्वन्ति ॥ ६७॥
यथा हि केषांचिन्नक्तंचराणां चक्षुषः स्वयमेव तिमिरविकरणशक्तियोगित्वान्न तदपाकरणप्रवणेन प्रदीपप्रकाशादिना कार्य, एवमस्यात्मनः संसारे मुक्तौ वा स्वयमेव सुखतया परिणममानस्य सुखसाधनधिया अबुधैर्मुधाध्यास्यमाना अपि विषयाः किं हि नाम कुर्युः ॥ ६७|१ भूमिका – अब, आत्मा के स्वयं ही सुख रूप परिणमने की शक्ति युक्त होने से, विषयों के अकिंचित्-कर-पने को प्रगट करते हैं
१. काय ( ज० बु० ) । २. तह (ज० पृ० ) 1