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[ पवयणसारो
अन्वय सहित विशेषार्थ - - ( णाणं) यह केवलज्ञान (सयं जादं) स्वयमेव ही उत्पन्न हुआ है, (समत्तं ) परिपूर्ण है ( अणतत्थवित्थदं ) अनन्त पदार्थों में व्यापक है, (विमलं ) संशय आदि मलों से रहित है, (ओग्गहादिहि तु रहियं) अवग्रह, ईहा अवाय, धारणा आदि के क्रम से रहित है । इस तरह पाँच विशेषणों से गर्भित जो केवलज्ञान है वही ( एगंतियं ) नियम करके (सुहं त्ति मणियं ) सुख है, ऐसा कहा गया है।
भाव यह है कि यह केवलज्ञान पर पदार्थों की सहायता की अपेक्षा न करके चिदानन्दमयी एक स्वभाव रूप अपने ही शुद्धात्मा के एक उपादानकारण से उत्पन्न हुआ है इसलिये स्वयं पैदा हुआ है, सर्व शुद्ध आत्मा के प्रदेशों में प्रगटा है इसलिये सम्पूर्ण है, अथवा सर्वज्ञान के अविभाग- प्रतिच्छेद अर्थात् शक्ति के अंश उनसे परिपूर्ण है, सर्वआवरण के क्षय होने से पैदा होकर सर्व ज्ञेय पदार्थों को जानता है इससे अनन्त पदार्थ arrer है, संशय, विमोह विभ्रम से रहित होकर व सूक्ष्म आदि पदार्थों के जानने में अत्यन्त विशद होने से निर्मल है । तथा क्रमरूप इन्द्रियजनित ज्ञान के खेद के अभाव से अवग्रहाविरहित अक्रम है। ऐसा यह पाँच विशेषण सहित क्षायिकज्ञान अनाकुलता लक्षण को रखने वाला परमानन्दमयी एक रूप पारमार्थिक सुख से संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा से भेदरूप होने पर भी निश्चयनय से अभिन्न होने से पारमार्थिक या सच्चा स्वाभाविक सुख कहा जाता है, यह अभिप्राय है ।। ५६ ।।
अथ केवलस्थापि परिणामद्वारेण खेदस्य सम्भवादैकान्तिक सुखत्वं नास्तीति प्रत्याचष्टे
जं केवलति णाणं तं सोक्खं परिणमं च सो चेव ।
खेदो तस्स ण भणिदो' जम्हा घादी' खयं जादा ॥ ६०॥ यत् केवलमिति ज्ञानं तत् सौख्यं परिणामश्च सश्चैव ।
वेदस्तस्य न भणितो यस्मात् घातीनि क्षयं जातानि ॥ ६० ॥
अत्र को हि नाम खेदः, कश्च परिणामः कश्च केवल सुखयोव्र्व्यतिरेकः, यतः केवलस्यैकालिकसुखत्वं न स्यात् । खेदस्यायतनानि घातिकर्माणि न नाम केवलं परिणाममात्रम् । घातिकर्माणि हि महामोहोत्पादकत्वादुन्मत्त कव दर्तास्मस्तद्बुद्धि माधाय परिषछेद्यमथं प्रत्यात्मानं यतः परिणामयन्ति ततस्तानि तस्य प्रत्यर्थं परिणम्य श्राम्यतः खेदनिदानतां प्रतिपद्यन्ते । तदभावात्कुतो हि नाम केवले खेदस्योद्भेदः । यतश्च त्रिसमयावच्छ
१. भणिओ ( ज ० ० ) । २. खादिस्वयं ( ज० वृ० ) ।