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पवयणसारो 1
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है वे ( तं पडिच्छंति) उस अनन्तसुख को वर्तमान में श्रद्धान करते हैं तथा मानते हैं और जिनके सम्यक्त्वरूप भव्यत्वशक्ति की प्रगटता की परिणति भविष्यकाल में होगी, ऐसे दूरभव्य हैं, वे आगे श्रद्धान करेंगे ।
यहाँ यह भाव है कि जैसे किसी पोरन मारने के लिये ले जाता है, तब चोर मरण को लाचारी से भोग लेता है तैसे यद्यपि सम्यग्दृष्टियों को इन्द्रियसुख इष्ट नहीं है तथापि कोतवाल के समान चारित्रमोहनीय के उदय से मोहित होता हुआ सरागसम्यग्दृष्टि जीव वीतरागरूप निज आत्मा से उत्पन्न सच्चे सुख को नहीं भोगता हुआ इन्द्रियसुख को अपनी निन्दा गहां आदि करता हुआ त्याग बुद्धि से भोगता है । तथा जो वीतराग सम्यग्दृष्टि शुद्धोपयोगी हैं, उनको विकार रहित शुद्ध आत्मा के सुख से हटना ही, उसी तरह दुःखरूप झलकता है जिस तरह मछलियों को भूमि पर आना तथा प्राणी को अग्नि में घुसना दुःखरूप भासता है। ऐसा ही कहा हैसमसुखशीलितमनसां च्यवनमपि द्वेषमेति किमु कामा: । स्थलमपि वहति शषाणां किमङ्गः पुनरंङ्गमङ्गाराः ॥
भाव यह है - समतामयी सुख को भोगने वाले पुरुषों को समता से गिरना ही जब बुरा लगता है तब भोगों में पड़ना कैसे दुःख रूप न भासेगा ? जब मछलियों को जमीन ही दाह पैदा करती है, है आत्मन् ! तब अग्नि के अंगारे दाह क्यों न करेंगे ॥६२॥
अथ परोक्षज्ञानिनामपारमार्थिकमिन्द्रियसुखं विचारयति-मणुआसुरारिवा अभिदुवा' इन्दियेहिं सहजेहि ।
असहंता तं दुक्खं रमंति विसएसु रम्मेसु ॥ ६३॥ मनुजासुरामरेन्द्राः अभिद्रुता इन्द्रियैः सहजैः । असमानास्तद्दुःखं रमन्ते विषयेषु रम्येषु ।। ६३||
अमीषां प्राणिनां हि प्रत्यक्षज्ञानाभावात्परोक्षज्ञानमुपसर्पतां सत्सामग्रीभूतेषु स्वरसत एवेन्द्रियेषु मंत्री प्रवर्तते । अथ तेषां तेषु मंत्रीमुपगतानामुदीर्ण महामोहक लानल कवलितानां तप्तायोगोलानामियात्यन्तमुपात्ततृष्णानां तद्दुः खवेगमसहमानानां व्याधिसात्म्यतामुपगतेषु रम्येषु विषयेषु रतिरूपजायते । ततो व्याधिस्थानीयत्वादिन्द्रियाणां व्याधिसात्म्यसमत्वाद्विषयाणां च न छद्मस्थानां पारमार्थिकं सौख्यम् ॥ ६३॥
भूमिका - अब, परोक्षज्ञानियों के अपारमार्थिक इन्द्रियसुख का विचार करते हैं।
१. अहिदा ( वृ० ) ।
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