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पक्षणसारो ] परमाणु आदिकों में नहीं प्रवर्तन कर सकता, क्योंकि इन्द्रियों का विषय स्थूल है तथा मूर्तिक पदार्थ है। इस कारण से इन्द्रियज्ञान के द्वारा सर्वज्ञ नहीं हो सकता। इसीलिये ही अतीन्द्रियज्ञान की उत्पत्ति का कारण जो रागद्वेषादि विकल्प रहित स्वसंवेदन ज्ञान है उसको छोड़कर पंचेन्द्रियों के सुख के कारण इन्द्रियज्ञान में तथा नाना मनोरथ के विकल्पजालस्वरूप मन सम्बन्धी ज्ञान में जो प्रोति करते हैं वे सर्वज्ञ पद को नहीं पाते हैं, ऐसा सूत्र का अभिप्राय है ॥४०॥
अथातीन्द्रियज्ञानस्य तु यदुच्यते तत्तत्संभवतीति संभावयति--
अपदेसं सपदेस मुत्तममुत्तं च पज्जयमजादं । पलयं गयं च जाणदि तं जाणदिदियं' भणियं ॥४१॥
प्रदेश संप्रदेश मूलममूर्त च पर्ययमजातम् ।
प्रलयं गतं च जानाति तज्ज्ञानमतीन्द्रियं भणितम् ॥४१॥ इन्द्रियज्ञानं नाम उपदेशान्तःकरणेन्द्रियावनि विरूपकारणत्वेनोपलब्धिसंस्कारावीन् अन्तरङ्गस्वरूपकारणत्वेनोपावाय प्रवर्तते । प्रवर्तमानं च सप्रदेशमेवाध्यवस्यति स्थूलोपलम्मकत्वान्नाप्रदेशम् । मूर्तमेवावगच्छति तथाविधविषयनि बन्धनसद्धावान्नामूर्तम्। वर्तमानमेव परिच्छिनत्ति विषयविषयिसन्निपातसद्धावान्न तु वृत्तं वस्य॑च्च । यत्तु पुनरनावरणमनिन्द्रियं ज्ञानं तस्य समिद्धधमध्वजस्येवानेकप्रकारतालिङ्गितं दाह्य दाातानतिक्रमाहाह्यमेव यथा तथात्मनः अप्रदेशं सप्रदेशं मूर्तममूर्तमजातमतिवाहितं च पर्यायजातं ज्ञेयतानतिकमात्परिच्छेद्यमेव भवतीति ॥४१॥
भूमिका-अब, अतीन्द्रिय ज्ञान के लिये तो जो जो कहा जाता है वह सब सम्मक है इसको स्पष्ट करते हैं
अन्वयार्थ--जो [अप्रदेशं] अप्रदेशी को (कालाणु को), [सप्रदेशं] बहुप्रदेशी को (पंचास्तिकायों को) [मूर्त ] मूर्तिक को (पुद्गल द्रव्य को) [च] और [अमूर्त ] अमूर्तिक को (शेष पाँच द्रव्यों को) तथा [अजातं] अनुत्पन्न (भावी) [च] और [प्रलयं गतं] नष्ट (अतीत) [पर्याय ] पर्याय को [जानाति] जानता है, [तत् ज्ञानं] वह ज्ञान [अतीन्द्रियं ] अतीन्द्रिय [भणितं] कहा गया है।
___टीका-इन्द्रिय-ज्ञान, उपदेश-अन्तःकरण और इन्द्रिय आदि को विरूप कारणपने से (बहिरंगपने से) और उपलब्धि (क्षयोपशम) संस्कार आदि को अन्तरंगस्वरूप कारण
१. णाणमणिदियं (ज. वृ.) ।