________________
[ पवयणसारो
स्वाभवप्रत्यक्षमात्मानं परिणमति । एतं किल द्रव्यस्वभावः । यस्तु समस्तं ज्ञेय न जानाति स, समस्तं वाह्यमवहन् समस्त दाह्यहेतुकसमस्तदाह्याकारपर्यायपरिणतसकलंकदहनाकारमात्मानं दहन इव समस्तज्ञे यहेतुकसमस्तज्ञेयाकारपर्यायपरिणतसकलंकज्ञानाकारमात्मानं चेतनत्वात् स्वानुभवप्रत्यक्षत्वेऽपि न परिणमति । एवमेतधायाति यः सर्वन जानाति स आत्मानं न जानाति ॥४८॥
भूमिका-अब, सबको नहीं जानता हुआ एक (आत्मा) को भी नहीं जानता है, यह निश्चय करते हैं
अन्वयार्थ-- [यः] जो [युगपत्] एक ही साथ [कालिकान् त्रिभुवनस्थान्] त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ (तीनों काल के और तीनों लोक के) [अर्थात्] पदार्थों को [न विजानाति] नहीं जानता है [तस्य ] उसके [सपर्ययं] पर्याय सहित [एक द्रव्यं वा] एक (आत्मा) द्रव्य भी [ज्ञातुं न शक्यं] जानना शक्य नहीं है।
टीका-इस विश्व में वास्तव में एक आकाश द्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, असंख्य कालद्रव्य और अनन्त जीयद्रव्य तथा उससे भी अनन्तगुणे पुद्गलद्रव्य हैं। उनमें से प्रत्येक के अतीत अनागत और वर्तमान ऐसे (तीन) प्रकारों से भेदवाली निरवधि (अमर्यादित) वृत्ति प्रवाह के भीतर पड़ने वाली अनन्त पर्यायें हैं। इस प्रकार यह समस्त हो (द्रव्यों और पर्यायों का) समुदाय ज्ञेय है। उनमें ही कोई एक मी जीव द्रव्य ज्ञाता है। अब यहाँ, जैसे समस्त (इंधन) को जलाती हुई अग्नि, समस्त दाह्यकहेतुक (समस्त दाह्य के निमित्त से होने वाले) समस्त वाह्याकार (इंधन आकार) पर्याय रूप परिणत सकल एक बहन जिसका आकार (स्वरूप) है, ऐसे अपने रूप परिणत होती है, वैसे ही समस्त जेय को जानता हुआ ज्ञाता (आत्मा), समस्त-शेय-हेतुक (समस्त जेय के निमित्त से होने वाले) समस्त ज्ञेयाकार पर्याय रूप परिणत सकल एक ज्ञान जिसका आकार (स्वरूप) है तथा जो चेतनपने के कारण स्वानुभव-प्रत्यक्ष है, ऐसे उस अपने भात्मा रूप परिणत होता है। वास्तव में ऐसा द्रव्य का स्वभाव है । जैसे समस्त वाह्य को न दहती हुई अग्नि, समस्तबाह्य-हेतुक समस्त दाहाकार पर्यायरूप परिणत सकल एक दहन जिसका आकार है, ऐसे अपने रूप में परिणत नहीं होती, उसी प्रकार जो समस्त ज्ञेय को नहीं जानता है, वह आत्मा, समस्त-ज्ञेय-हेतुक समस्त ज्ञेयाकार पर्यायरूप परिणत सकल एक ज्ञान जिसका आकार है, ऐसे अपने रूप में स्वयं चेतनपने के कारण स्वानुभव प्रत्यक्ष होने पर भी परिणत नहीं होता, (अपने को परिपूर्णतया अनुभव नहीं करता-नहीं जानता)। इस