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पवयणसारो ]
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भेदों में समा जाता है, अतीन्द्रिय ज्ञान अवश्य देखता है । अभूतं धर्मास्तिकाय आदि को और मूर्ती में भी अतीन्द्रिय परमाणु इत्यादिकों में तथा द्रव्य से प्रच्छन्न काल- अणु आदिकों में, क्षेत्र से प्रच्छन्न अलोकाकाश के प्रदेश आदिकों में, काल में प्रच्छन्न असाम्प्रतिक ( भूत-भविष्यत ) पर्यायों में, तथा भाव से प्रच्छन्न स्थूल पर्यायों में अन्तलीन सूक्ष्म पर्यायों में यानि उन सब ही में जो कि स्व और पर की व्यवस्था में व्यवस्थित हैं, प्रत्यक्ष होने से वास्तव में उस अतीन्द्रियज्ञान के दृष्टापन है ( उन सबको वह अतीन्द्रियज्ञान देखता है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष है ) |
अब इसको न्याय से आचार्य स्वयं सिद्ध करते हैं - ( १ ) जिसको अनन्त शुद्धि का समाव प्रगट हुआ है, ( २ ) जो चतन्य सामान्य के साथ अनादि-सिद्ध सम्बन्ध वाला है (३) एक ही अक्ष नामक आत्मा के प्रति जो नियत है, (४) जो (इन्द्रियादिक उपात्त अनुपात्त ) अन्य सामग्री को नहीं ढूंढता है, (जिसे अन्य सामग्री की सहायता की आवश्यकता नहीं है ) और (५) जो अनन्तशक्ति के सद्भाव के कारण अनन्तता को प्राप्त है, ऐसा वह प्रत्यक्ष ज्ञान जैसे दाह्यकारों से दहन का अतिक्रमण ( उलंघन ) नहीं होता, उसी प्रकार ज्ञेयाकारों से ज्ञान का अतिक्रमण ( उलंघन ) न होने से यथोक्त प्रभाव का अभाव करता हुआ ( उपर्युक्त अतिशयों सहित होने से ) वास्तव में वह किसके द्वारा रोका जा सकता है ? ( किसी से भी नहीं रोका जा सकता ) । इसलिये वह अतीन्द्रियज्ञान उपादेय है ||५४ ||
तात्पर्यवृत्ति
अथ पूर्वोक्तमुपादेयभूतमतीन्द्रियज्ञानं विशेषेण व्यक्ती करोति
जं यदन्तीन्द्रियं ज्ञानं कर्तृ । पेच्छवो प्रेक्षमाणपुरुषस्य जानाति । किं किं ? अमृतं अमूर्तमतीन्द्रियनिरुपरागसदानन्दैक सुखस्वभावं यत्परमात्मद्रव्यं तत्प्रभृति समस्तामूर्तद्रमसमूहं मुत्ते अयं च मूर्तेषु पुद् गलद्रव्येषु यदतीन्द्रिय परमाण्वादि पच्छष्णं कालानुप्रभृतिद्रव्यरूपेण प्रच्छ यतिमन्तरितं लोकाकाशप्रदेश प्रमृति क्षत्रप्रच्छन्नं निविकारपरमानन्द क सुखास्वादपरिणतिरूपपरमात्मनो वर्तमानसमयगतपरिणामास्तत्प्रभृतयो ये समस्तद्रव्याणां वर्तमान समयगत परिणामास्ते कालप्रच्छन्नाः तस्यैव परमात्मनः सिद्धरूप शुद्धव्यञ्जनपर्यायः शेषद्रव्याणां च ये यथासम्भवं जनपर्यायास्तेष्वन्तर्भूताः प्रतिसमयप्रवर्तमानषट्कार वृद्धिहानिरूपणं अथपर्यायां भावप्रच्छन्ना भण्यन्ते । सयलं तत्पूर्वोक्तं समस्तं ज्ञेयं द्विधा भवति । कथमिति चेत् ? समं च इवरं किमपि ? यथासम्भवं स्वद्रव्यगतं इतरत्परद्रव्यगतं तदुभयं यतः कारणाज्जानाति तेन कारणेन तण्णाणं तत्पूर्वोक्तज्ञानं यदि भवति । कथंभूतं ? पच्त्रयखं प्रत्यक्षमिति ।
अत्राह शिष्यः - ज्ञानप्रपञ्चाधिकारः पूर्वमेव गतः अस्मिन् सुखप्रञ्चाधिकारे सुखमेव कथनीयमिति । परिहारमाह-- घदतीन्द्रियं ज्ञानं पूर्वं भणितं तदेवाभेवनयेन सुखं भवतीति ज्ञापनार्थ, अथवा ज्ञानस्य मुख्यवृत्या तत्र हेयोपादेयचिन्ता नास्तीति ज्ञापनार्थ वा । एवमतिन्द्रियज्ञानमुपादेवमिति कथन मुख्यत्वेने गाथया द्वितीयस्थलं गतम् ।।५४।।