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[ पवयणसारो
इसका विस्तार यह है कि अमूर्तिक, क्षायिक, अतीन्द्रिय, चिदानन्द लक्षण-स्वरूप शुद्धात्मा की शक्तियों से उत्पन्न होने वाला अतीन्द्रियज्ञान और सुख आत्मा के ही अधीन होने से अविनाशी हैं, इससे उपादेय है तथा पूर्व में कहे हुए अमूर्त शुद्ध आमा की शक्ति से विलक्षण जो क्षायोपशमिक इन्द्रियों की शक्तियों से उत्पन्न होने वाला ज्ञान और सुख हैं, व पराधीन होने से बिनाशवान हैं, इसलिये हेय हैं, ऐसा तात्पर्य है। अतीन्द्रियज्ञान व सुख की अपेक्षा इन्द्रिय-जनित ज्ञान व सुख हेय हैं, सर्वथा हेय नहीं हैं ॥५३॥ अथातीन्द्रियसौख्यसाधनीभूतमतीन्द्रियज्ञानमुपादेयमभिष्टौति
जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिदियं च पच्छपणं । सयलं सगं च इदरं तं 'णाणं हवदि पच्चक्कं ॥५४॥
यत्प्रेक्षमाणस्यामूर्त मृतवतीन्द्रिञ्च प्रच्छन्नम् । __ सकलं स्वकञ्च इतरत् तदज्ञान भवति प्रत्यक्षम् ।। ५४॥
अतीन्द्रियं हि ज्ञानं यदमूतं यन्मूर्तेष्वप्यतीन्द्रियं यत्प्रच्छन्नं च तत्सकलं स्वपरविकल्पान्तःपाति प्रेक्षत एव । तस्य खल्वमूतेषु धर्माधर्माविषु, मूर्तेष्वप्यतीन्द्रियेषु परमाण्वाविष, ध्यप्रच्छानेषु कालाविषु, क्षेत्रप्रच्छन्नेष्वलोकरकाशप्रदेशादिष, कालप्रच्छन्नेष्यसाप्रतिकपर्यायेषु, भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायान्तीनसूक्ष्मपर्यायेषु सर्वेष्वपि स्थपरव्यवस्थाव्यव. स्थितेष्वस्ति द्रष्टत्वं प्रत्यक्षत्वात् । प्रत्यक्षं हि ज्ञानमुद्धिनान्तशुद्धिसन्निधानमनादिसिद्धचंतन्यसामान्यसंबन्धमेकमेवाक्षनामानमात्मानं प्रतिनियमितरां सामग्रीममगयमाणमनन्तशक्तिसद्भावतोऽनन्ततामुपगतं दहनस्येव दाह्याकाराणां ज्ञानस्य ज्ञेयाकाराणामनतिक्रमाद्यथोदितानुभावमनुभवत्तत् केन नाम निवार्येत । अतस्तदुपादेयम् ॥५४॥
भूमिका—अब, अतीन्द्रियसुख का साधनभूत अतीन्द्रियज्ञान उपादेय है, इस प्रकार उसकी प्रशंसा करते हैं:--
अन्वयार्थ--[प्रेक्षमाणस्य यत् ] देखने वाले का जो ज्ञान' [अमूर्तं] अमूर्त को, [मुर्तषु अतीन्द्रियं] मुर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय (परमाणु आदि) को, [च प्रच्छन्नं] (काल या क्षेत्र की अपेक्षा गुप्त-इन्द्रिय-अग्राह्य को, [सकलं] इन सबको [स्वयं च इतरत्] स्व तथा पर को [पश्यति] देखता है (जानता है) [तत् ज्ञान] बह ज्ञान [प्रत्यक्ष भवति] प्रत्यक्ष है।
टीका-जो अमूर्त है, जो मूर्तों में भी अतीन्द्रिय है, और जो प्रच्छन्न (काल या क्षेत्र की अपेक्षा गुप्त-इन्द्रिय है ग्राह्य नहीं) है, उस सबको जो कि स्व और पर इन दो
(१) तण्णाणं (ज० वृ)।