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[ पवयणसारो
अथ परोक्षप्रत्यक्षलक्षणमुपलक्षयतिजं परदो विण्णाणं तं तु परोक्खं त्ति भणिदमत्थेसु । जदि केवलेण णादं हदि हि जीवेण पच्चक्खें ॥५॥
यत्परतो विज्ञानं तत्तु परोक्षमिति णितमर्थेषु । ___ यदि केवलेन ज्ञातं भवति हि जीवेन प्रत्यक्षम् ।।५८॥
यत्तु खलु परद्रव्यभूतावन्तःकरणादिन्द्रियात्परोपदेशानुपलब्धः संस्कारादालोकादेवानिमित्ततामुपगतात् स्वविषयमुपगतस्यार्थस्य परिच्छेदन तत् परतः प्रादुर्भवत्परोक्षमित्यालक्ष्यते । यत्पुनरन्तःकरणमिन्द्रिय परोपदेशमुपलब्धिसंस्कारमालोकादिकं वा समस्तमपि परद्रव्यमनपेक्ष्यात्मस्वभावमेवेक कारणरवेनोपादाय सर्वद्रव्यपर्यायजातमेकपद एवाभिव्याग्य प्रवर्तमानं परिच्छेदनं तत् केवलादेवात्मनः संभूतत्वात् प्रत्यक्षमित्यालक्ष्यते । इह हि सहजसौख्यसाधनीभूतमिदमेव महाप्रत्यक्षमभिप्रेतमिति ॥५॥
भूमिका-अब, प्रत्यक्ष और परोक्ष के लक्षण को बतलाते हैं__ अन्वयार्थ-[परतः] पर के द्वारा होने वाला [यत् | जो [अर्थेष विज्ञानं] पदार्थ सम्बन्धी विज्ञान है [तत् तु] वह तो [परोक्षं] परोक्ष [इति ] इस नाम से [भणितं] कहा गया है [यदि] जो [केवलेन जीवेन ] मात्र जीव के द्वारा ही [ज्ञातं भवति] जाना जाता है [वह प्रत्यक्षं] वह ज्ञान वास्तब में प्रत्यक्ष है ।
___टीका-परोक्ष का लक्षण निमित्तरूप से बने हए परद्रध्यभूत अन्तःकरण (मन) से, इन्द्रिय से, परोपदेश से, उपलब्धि से (ज्ञानावरण के क्षयोपशम से प्राप्त लब्धि से) या प्रकाश आदिक से अपने विषय को प्राप्त पदार्थ का जो जानना है, वह (जानना) पर के द्वारा प्रगट होता हुआ 'परोक्ष' लक्षित किया जाता है अर्थात् परोक्ष है।
प्रत्यक्ष का लक्षण-अन्तःकरण की इन्द्रिय की, परोपदेश को, उपलब्धि-संकार की या प्रकाश आदिक की अथवा सभी पर-द्रव्यों की अपेक्षा न करके एकमात्र आत्मस्वभाव को ही कारण रूप से ग्रहण करके सर्व द्रव्य पर्याय समूचे को युगपत् (एक समय में) ही व्याप्त होकर प्रवर्तमान जो जानता है वह (जानना) केवल आत्मा के द्वारा ही उत्पन्न हुआ होने से 'प्रत्यक्ष' लक्षित किया जाता है, अर्थात् प्रत्यक्ष है।
सार-यहाँ (इस प्रकरण में) वास्तव में सहज सुख का साधनभूत ऐसा यही महा प्रत्यक्षज्ञान ही इष्ट है (उपादेय है) ॥५॥
-- १. अटुंसु (ज० वृ०)।