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[ पबयणसारो
मात्मा का ज्ञान होता है। यदि ऐसा है तो मृदाम्थों को पर्व का ज्ञान नहीं है, तब उनको आत्मा का ज्ञान कैसे होगा? यदि उनको आत्मा का ज्ञान न होगा तो उनके आत्मा को भावना कसे होगी ? यदि आत्मा की भावना न होगी तो उनको केवलज्ञान को उत्पत्ति नहीं होगी ? इस शंका का समाधान करते हैं कि परोक्ष प्रमाणरूप श्रुप्तज्ञान से सर्व पदार्थ जाने जाते हैं। यह कसे सो कहते हैं कि छमस्यों को भी लोक और आलोक का ज्ञान व्यारित ज्ञानरूप से है। वह व्याप्ति ज्ञान परोक्ष रूप से केवलज्ञान के विषय को ग्रहण करने वाला है इसलिये किसी अपेक्षा से मात्मा ही कहा जाता है। अथवा स्वसवेदन ज्ञान आत्मा को जानते हैं, और फिर उसकी भावना करते हैं। इसी रागद्वेषादि विकल्पों से रहित स्वसंवेदन ज्ञान की भावना के द्वारा केवलज्ञान पैदा हो जाता है। इसमें कोई दोष नहीं है ॥४॥
अथ क्रमकृतप्रवृत्त्या ज्ञानस्य सर्वगतत्वं न सिद्धयतीति निश्चितोतिउप्पज्जदि जदि गाणं कमसो अढे पडुच्च णाणिस्स । तं व हदि णिच्चं ण खाइगं व सत्वगदं ॥५०॥
उत्पद्यते यदि ज्ञानं क्रमशोऽर्थान् प्रतीत्य शानिनः ।
तन्नैव भवति नित्यं न क्षायिक नैव सर्वगतम् ॥५०॥ यत्किल कमेणंककमर्थमालम्ब्य प्रवर्तते ज्ञानं, तबेकार्थालम्बनादुत्पन्नमन्यार्थालम्बनात् प्रतीयमानं नित्यमसत्तथा कर्मोदयादेको व्यक्ति प्रतिपन्नं पुनर्व्यक्त्यन्तरं प्रतिपद्यमान क्षायिकमायसवनन्तद्रव्यक्षेत्रकालभावानाक्रान्तुमशक्तत्वात् सर्वगतं न स्यात् ॥५०॥
भूमिका-अब क्रम से होने वाली प्रवृत्ति से ज्ञान की सवंगतता सिद्ध नहीं होती, यह निश्चित करते हैं
अन्वयार्थ- [यदि] जो [ज्ञानिन: ज्ञान] आत्मा का ज्ञान [क्रमशः] क्रम से [अर्थात् प्रतीत्य] पदार्थों का अवलम्बन लेकर [उत्पद्यते ] उत्पन्न होता है [तत्] तो वह ज्ञान [न एव नित्यं भवति] नित्य नहीं है, [न क्षायिक] क्षायिक नहीं है, [न एव सर्वगतं | और सवंगत [सबके जानने वाला] नहीं है।
टीका-जो ज्ञान वास्तव में क्रम से एक-एक पदार्थ का अवलम्बन लेकर प्रवृत्त होता है वह एक पदार्थ के अवलम्बन से उत्पन्न और दूसरे पदार्थ के अवलम्बन से नष्ट (हो जाने से) नित्य नहीं होता। तथा कर्मोदय के कारण से एक व्यक्ति (पर्याय-विशेष)
१. खाइयं (ज० वृ०) (२) णेव सव्वगयं (ज० वृ.)