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पवयणसारो ] श्री पंचास्तिकाय गाथा ८ में भी 'सम्पडिववखा हबई' शब्दों द्वारा इस सिद्धान्त का समर्थन होता है कि सब सप्रतिपक्ष हैं। अत: 'नियति' भी अपने प्रतिपक्ष अनियति की अपेक्षा रखती है । यदि अनियत पर्यायों का अभाव माना जायगा तो नियत पर्यायों का भी अभाव हो जायगा । नियत और अनियत पर्यायों के अभाव से पर्याय मात्र का अमाव हो जायगा, और पर्याय मात्र के अभाव हो जाने से द्रव्य के अभाव का प्रसंग आ जायगा। अतः पर्याय नियत और अनियत बोनों प्रकार की हैं ॥४॥
अर्थकमजानन सयं न जानतीति निश्चिनोति--
दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दवजादाणि । ण विजाणवि जदि जुगवं 'किध सोसम्वाणि जाणादि ॥४६॥
द्रव्यमनन्तपर्यायमेकमनन्तानि द्रव्यजाताति ।
न विजानाति यदि युगपत् कथं स सर्वाणि जानाति ॥४६॥ आत्मा हि तावत्स्वयं ज्ञानमयत्वे सति ज्ञातृत्वात् ज्ञानमेव । ज्ञानं तु प्रत्यात्मवति प्रतिभासमयं महासामान्यम् । तत्तु प्रतिभासमयानन्तविशेषव्यापि । ते च सर्वप्रध्यपर्यायनिबन्धनाः । अथ यः सर्वद्रव्यपर्यायनिबन्धनानन्तविशेषव्यापिप्रतिभासमयमहासामान्यरूपमात्मानं स्वानुभवप्रत्यक्ष न करीत स कथं प्रतिम समयमहासामान्यध्यायप्रतिमासमयानन्तविशेषनिबन्धनभूतसर्वद्रव्यपर्यायान् प्रत्यक्षीकुर्यात् । एवमेतदायाति य आत्मानं न जानाति स सर्व न जानाति । अथ सर्वज्ञानावात्मज्ञानमात्मज्ञानात्सर्वज्ञानमित्यवष्ठिते । एवं च सति ज्ञानमयत्येन स्वसंचेतकत्वादात्मनो ज्ञातशेययोर्वस्तुत्वेनान्यत्वे सत्यपि प्रतिभासप्रतिभास्यमानयोः स्वस्थामवस्थायामन्योन्यसंवलनेनात्यन्तमशक्यविवेचनत्वात्सर्वमात्मनि निखात मिव प्रतिभाति । यद्येवं न स्यात् तदा ज्ञानस्य परिपूर्णात्मसंचेतनाभावत् परिपूर्णस्यकस्यात्मनोऽपि ज्ञानं न सिद्धयत् ॥४६॥
भूमिका-अब, एक को न जानने वाला सबको नहीं जानता, यह निश्चित करते हैं
अन्वयार्थ-[यदि] जो [अनन्तपर्यायं] अनन्त पर्याय वाले [एक द्रव्यं ] एक द्रव्य को (आत्मद्रव्य को) [न विजानाति] नहीं जानता [सः] तो वह [युगपत् ] एक ही साथ [सर्वाणि अनन्तानि-द्रव्यजातानि] सर्व अनन्त द्रव्य जातियों को [कथं जानाति] कैसे जान सकेगा (अर्थात् नहीं जान सकता)।
टीका-पहले तो आत्मा वास्तव में स्वयं ज्ञानमय होने पर ज्ञातृत्व के कारण ज्ञान ही है। प्रत्येक आत्मा में रहने वाला ज्ञान प्रतिभासमय महा-सामान्य है। वह
(1) कधं (ज० वृ०)।