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पक्ष्यणसारो ।
[ ६६ अपने कर्म को ही अनुभव कर रहा है । ज्ञान को अनुभव नहीं कर रहा है। अथवा दूसरा व्याख्यान यह है कि यदि ज्ञाता प्रत्येक पदार्थ रूप परिणमन करके पीछे पदार्थ को जानता है तब पदार्थ अनन्त है इमसे सर्व पदार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता । अथवा तीसरा व्याख्यान ग्रह है कि जव छनस्थ अवस्था में यह बाहर के ज्ञेय पदार्थों का चितवन करता है तब रागद्वेषादि रहित स्वसंधेवन ज्ञान इसके नहीं है । स्वसंवेदन ज्ञान के अभाव में क्षायिकज्ञान भी नहीं पैदा होता है ऐसा अभिप्राय है ॥४२॥ अथ कुतस्तहि ज्ञेयार्थपरिणमनलक्षणा क्रिया तत्फलं च भवतीति विवेचयति--
उदयगदा' कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया । तेसु विमूढो रत्तो दुट्ठो वा बंधमणुभवदि ॥४३॥
- उदयगताः कर्माशाः जिनवरवृषभैः नियत्या णिताः।
. तेषु विमूढो रक्तो दुष्टो वा बन्धमनुभवति ।।४।। संसारिणो हि नियमेन तावदुदयगताः पुद्गलकर्माशाः सन्त्येव । अथ स सत्सु तेषु संचेतयमानो मोहरागद्वेषपरिणतत्वात गार्थपरिणमनलक्षणय किण्या युज्यते । ततश्च (तत एव) कियाफलभूतं बन्धमनुभवति । अतो मोहोदयात् क्रियाक्रियाफले, न तु ज्ञानात् ॥४३॥
भूमिका-(यदि ऐसा है) तो फिर ज्ञेय पदार्थ रूप परिणमन जिसका लक्षण है, ऐसी (सविकल्परूप, राग-द्वेष सहित) क्रिया और उसका फल कहाँ से (किस कारण से) उत्पन्न होता है, यह विवेचन करते हैं
___अन्वयार्थ-उदयगताः कर्माशाः] (संसारी जीव के) उदय प्राप्त कर्म-अंश (मोहनीय पुद्गल कर्म की प्रकृति) [नियत्या | नियम से [जिनवरवृषभः] जिनवर वृषभ: (तीर्थकरों) के द्वारा [भणिताः। कहे गये हैं। (जीव) [तेषु] उन कर्माशों के उदय होने पर [विमूढः रक्तः दुष्टः वा] मोही, रागी और द्वेषी होता हुआ | बन्धं अनुभवति] बन्ध को अनुभव करता है।
टीका-प्रथम तो, संसारी जीव के नियम से उदयगत पुदगलकर्माश होते ही हैं। वह संसारी जीव जन सत् रूप कर्माशों (के उदय) में चेतता (अनुभव करता) हआ, मोहराग-द्वेष रूप परिणत होने से, ज्ञेय पदार्थों में परिणमन जिसका लक्षण है, ऐसी (विकल्पात्मक, क्रिया के साथ युक्त होता है। इसीलिये क्रिया के फलभूत बन्ध को अनुभव करता है। इससे (यह कहा है कि) मोह के उदय से ही किया और क्रियाफल होते हैं, ज्ञान से नहीं ॥४३॥
१. उदयगया (ज० वृ०) ।
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