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पवयणसारी ]
उत्थानिका-आगे इसी बात को दृढ़ करते हैं कि असद्भूत पर्यायें ज्ञान में प्रत्यक्ष हैं--
___अन्वय सहित विशेषार्थ-(जदि) यदि (अजादं) अनुत्पन्न-जो अभी पैदा नहीं हुई हैं ऐसी भावी (च पलइयं) तथा जो चली गई ऐसी भूत (पज्जायं) पर्याय (णाणस्स) केवलज्ञान के (पच्चपखं) प्रत्यक्ष (ण हवदि) न हो (वा) तो (तं गाणं) उस ज्ञान को (वित्ति) दिव्य अर्थात् अलौकिक अतिशय रूप (हि) निश्चय से (के) कौन (पविति) कहें ? अर्थात् कोई भी न कहें। भाव यह है कि यदि वर्तमान पर्याय की तरह भूत और भावी पर्याय को केवलज्ञान क्रमरूप इन्द्रियज्ञान के विधान से रहित हो साक्षात् प्रत्यक्ष न करे तो यह ज्ञान विश्य न होथे। वस्तु स्वरूप को अपेक्षा विचार करें तो वह शुद्ध ज्ञान भी न होवे । जैसे यह केवली भगवान् पर द्रव्य व उसकी पर्यायों को यद्यपि ज्ञानमात्रपने से जानते हैं तथापि निश्चय करके सहज ही आनंदमयी एक स्वभाव के धारी अपने शुद्ध तन्मयी पने से ज्ञान क्रिया करते हैं तैसे निर्मल विवेकी मनुष्य भी यद्यपि व्यवहार से परद्रव्य म उसके गुण पर्याय का ज्ञान करते हैं तथापि निश्चय से विकार रहित स्वसंवेदन पर्याय में अपना विषय रखने से उसी पर्याय का ही ज्ञान या अनुभव करते हैं यह सूत्र का तात्पर्य है ॥३६॥
अथेन्द्रियज्ञानस्यव प्रलोनमनुत्पन्नं च ज्ञातुमशक्यमिति वितर्कयति
'अत्थं अक्खणिवविदं ईहापुवेहि जे विजाणंति । तेसि परोक्खभूदं जादुमसक्कं ति पण्णत्तं ॥४०॥ ___ अर्थमक्षनिपतितमीहापूर्वयः विजानन्ति ।
तेषां परोक्षभूतं ज्ञातुमशक्यमिति प्राप्तम् ।।४०॥ ये खलु विषयविषयिसन्निपातलक्षणमिन्द्रियार्थसन्निकर्षमधिगम्य क्रमोपजायमानेनेहारिकप्रक्रमेण परिच्छिन्दन्ति, ते किलातिवाहितस्वास्तित्वकालमनुपस्थितस्वास्तित्वकालं वा यथोक्तिलक्षणस्य ग्राह्ययाहकसंबन्धस्यासंभवतः परिच्छेत्तुं न शक्नुवन्ति ॥४०॥
भूमिका-अब, इन्द्रिय ज्ञान के द्वारा नष्ट और अनुत्पन्न को जानना अशक्य है, ऐसा न्याय से निश्चित करते हैं।
__ अन्वयार्थ—[अक्षनिपतितं] इन्द्रिय गोचर [अर्थ] पदार्थ को [ईहा-पूर्वः] ईहापूर्वक [ये] [विजानन्ति] जानते हैं [तेषां] उनके [परोक्षभूतं] परोक्षभूत पदार्थ को [ज्ञातु] जानना [अशक्यं] अशक्य है, [इति प्रज्ञप्तं] ऐसा कहा गया है ।
१. अळं (ज० वृ०)।