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पवयणसारो ]
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भूमिका - - अब आत्मा और ज्ञान के कर्तृस्व करणत्व कृत भेव को दूर करते हैं ( प्रवेश-भेद हुए ज्ञान भिन्न पदार्थ हो और आत्मा भिन्न पदार्थ हो, तथा आत्मा का फिर ज्ञान से समवाय हो जाने पर आत्मा ज्ञानी बनता हो, ऐसा नहीं है, यह उपदेश करते हैं) ।
लिये
अन्वयार्थ – [ यः जानाति । जो (अ) जानता है [ [त झालं ] यह काम है (जो ज्ञायक है वही ज्ञान है ) [ ज्ञानेन ] ज्ञान के द्वारा ( सर्वथा भिन्न ज्ञान नामा पदार्थ से जुड़ कर ) [ आत्मा ] आत्मा [ ज्ञायक: न भवति ] ज्ञायक नहीं होता है । [ स्वयं ] स्वयं ही आत्मा [ज्ञानं परिणमते ] ज्ञान रूप परिणत होता है और [ सर्वे अर्था: ] सब पदार्थ [ ज्ञानस्थिताः ] ज्ञान में स्थित हो जाते हैं ।
टीका - आत्मा के अपृथग्भूत (अभिन्न) कर्तृत्व और कारणत्व की शक्ति-रूप पारमंवयं योगिना ( सहितपना) होने से जो स्वयं ही जानता है ( जो ज्ञायक है) वह ही ज्ञान है, जैसे जिसमें साधकतम उष्णस्व शक्ति अन्तलन है ऐसी स्वतन्त्र अग्नि के, दहन किया की प्रसिद्धि होने से, 'उष्णता' कही जाती है। परन्तु ऐसा नहीं है कि जैसे पृथग्वतों दांती (हसिया ) से देवदत काटने वाला है, उसी प्रकार ( पृथग्वर्ती) ज्ञान से आत्मा ज्ञायक ( जानने वाला) है । ऐसा होने पर, दोनों में (ज्ञान और आत्मा में ) अचेतनपना ( आ जायेगा ) और दो अवेतनों का संयोग होने पर भी ज्ञप्ति उत्पन्न नहीं होगी । ( आत्मा और ज्ञान के ) पृथग्वर्ती होने पर भी ( आत्मा के ) ज्ञप्ति मानी जाने पर ज्ञान के द्वारा पर के ज्ञप्ति ( होगी ) ( और इस प्रकार ) राख इत्यादिक के भी ज्ञप्ति की उत्पत्ति निरंकुश ( अबाधित ) होगी । ( यदि ऐसा माना जायगा कि आत्मा और ज्ञान पृथक्-पृथक् पदार्थ हैं किन्तु ज्ञान आत्मा के साथ युक्त हो जाता है इसलिये आत्मा जानने का कार्य करता है, तो ज्ञान के युक्त होने से पूर्व आत्मा जड़ था और जैसे ज्ञान जड़ आत्मा के साथ युक्त होता है, उसी प्रकार राख, घड़ा, खम्मा इत्यादि समस्त जड़ पदार्थों के साथ भी युक्त हो जाये और उससे वे सब पदार्थ भी जानने का कार्य करने लगें, किन्तु ऐसा नहीं होता । इसलिये आत्मा और ज्ञान पृथक-पृथक पदार्थ नहीं हैं ।) और विशेष - अपने से अभिन्न समस्त ज्ञेयाकार रूप परिणत जो ज्ञान है उस रूप स्वयं परिणत होने वाले आत्मा के कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारों के कारणभूत समस्त पदार्थ कथंचित् ज्ञानवर्ती ही हैं । ( इसलिये ) ज्ञाता और ज्ञान के विभाग की क्लिष्ट कल्पना से क्या प्रयोजन है, कुछ नहीं ||३५||