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[ पक्यणसारो . अन्वय सहित विशेषार्थ—(जो) जो कोई पुरुष (हि) निश्चय से (सुदेण) निर्विकार स्वसंवेदन रूप भाव-श्रुत परिणाम के द्वारा (सहावैण) समस्त विभावों से रहित स्वभाव से ही (जाणगं) ज्ञायक अर्थात् केवलज्ञानरूप (अप्पाणं) निजे आत्मा को (विजाणवि) विशेष करके जानता है अर्थात् विषयों के सुख से विलक्षण अपने शुद्धात्मा की भावना से पैरा होने वाले परमानन्दमई एक लक्षण को रखने वाले सुख रस के आस्वाद से अनुभव करता है । (लोयप्पदीवयरा लोड के रकाश करने वाले (इगिणी) ऋषि (२) उस महायोगीन्द्र को (सुयकेलि) श्रुतकेवली (भणति) कहते हैं।
इसका विस्तार यह है कि एक समय में परिणमन करने वाले सर्व चैतन्यशाली केवलज्ञान के द्वारा आदि अंत रहित, अन्य किसी कारण के बिना दूसरे द्रव्यों में न पाइये ऐसे असाधारण अपने आप से अपने में अनुभव आने योग्य परमचैतन्यरूप सामान्य लक्षण को रखने वाले तथा परतव्य से रहितपने के द्वारा केवल ऐसे आत्मा का आत्मा में स्वानुभव करने से जैसे भगवान् केवली होते हैं वैसे यह गणधर आदि निश्चयरत्नत्रय के आराधक पुरुष भी पूर्व में कहे हुए चैतन्य लक्षणधारी आत्मा का भाव-श्रुतज्ञान के द्वारा अनुभव करने से श्रुतकेवली होते हैं। प्रयोजन यह है कि जैसे कोई भी देवदत्त नाम का पुरुष सूर्य के उदय होने से दिवस में देखता है और रात्रि को भी दीपक के द्वारा कुछ देखता है बसे सूर्य के उदय के समान केवलज्ञान के द्वारा दिवस के समान मोक्ष अवस्था के होते हुए भगवान् केवली आत्मा को देखते हैं और संसारी विवेकी जीव रात्रि के समान संसारअवस्था में वीप के समान रागादि विकल्पों से रहित परम समाधि के द्वारा अपने आत्मा को देखते हैं । अभिप्राय यह है कि आत्मा परोक्ष है। उसका ध्यान कैसे किया जाय, ऐसा सन्देह करके परमात्मा की भावना को छोड़ न देना चाहिये ॥३॥ : अथ ज्ञानस्य श्रुतोपाधिभेदमुवस्यति
सुत्तं जिणोवविढे पोग्गलदम्वप्पगेहिं वयणेहिं । तं जाणणा हि जाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया ॥३४॥
सूत्रं जिनोपदिष्टं पुद्गलद्रव्यात्मकर्वचनैः।
तज्ज्ञप्तिहि ज्ञानं सूत्रस्य च ज्ञप्तिर्भणिता ॥३४॥ श्रुतं हि तावत्सूत्रम्, तच्च भगवर्हत्सर्वजोपज्ञ स्थात्कारकेतनं पौद्गलिक शब्दब्रह्मतज्जप्तिहि नानम् । श्रुतं तु तत्कारणत्वात्, ज्ञानत्वेनोपचर्यत एव । एवं सति, सूत्रस्य ज्ञप्तिः श्रुत