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[ पवयणसारो
भूमिका - अब केवलज्ञानी तथा श्रुतज्ञानी के अविशेष (समानता अन्तररहितता ) दिलाते हुये, विशेष आकांक्षा के क्षोभ को नष्ट करते हैं (अर्थात् केवलज्ञानी में और श्रुतज्ञानी में अन्तर नहीं है, यह दिखाकर विशेष जानने की इच्छा की आकुलता को नष्ट करते हैं):
अन्वयार्थ – [ यः ) जो [हि] वास्तव में [ श्रुतेन ] श्रुतज्ञान से ( निर्विकारः स्वसंवित्ति रूप भावश्रुत परिणाम से ) [ स्वभावेन ] स्वभाव से ( समस्त विभाव रहित स्वभाव से ) [ ज्ञायकं ] ज्ञायक स्वभावी ( भावज्ञान स्वरूप ) [ आत्मानं ] आत्मद्रव्य को [विजानाति ] जानता है, [लोकप्रदीपकराः ] लोक के प्रकाशक [ ऋषयः ] ऋषीश्वरगण [तं] उसको [ श्रुतकेवलिनं ] श्रुतकेबली [ भणन्ति ] कहते हैं ।
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टीका–जैसे भगवान् युगपत् परिणमन करते हुए समस्त चैतन्य- विशेष - युक्त केवलज्ञान द्वारा, अनावि निधन - निष्कारण (अहेतुक) असाधारण स्वसंवेद्यमान - चैतन्य सामान्य जिसकी महिमा है तथा जो चेतक स्वभाव से एकत्व होने से केवल ( अकेला, शुद्ध, अखण्ड) है, ऐसे आत्मा का आत्मा से आत्मा में अनुभव करने के कारण से केवली हैं, उसी प्रकार यह (छपस्थ ) पुरुष भी क्रमशः परिणमित होते हुए कुछ चैतन्य विशेषों से युक्त श्रुतज्ञान के द्वारा अनादिनिधन निष्कारण असाधारण स्वसंवेद्यमान - चैतन्य सामान्य जिसकी महिमा है तथा जो चेतक स्वभाव के द्वारा एकत्व होने से केवल (अकेला) है, ऐसे आत्मा का आत्मा से आत्मा में अनुभव करने के कारण श्रुतकेवली हैं। ( इसलिये ) विशेष आकांक्षा के क्षोभ से (अधिक जानने की इच्छा रूप आकुलता से) समाप्त हो । (हमारे द्वारा ) स्वरूप से निश्चल ही ठहरा जाता है ।
भावार्थ - उद्यस्थ जीव माय श्रुतज्ञान द्वारा निज शुद्ध आत्मा का अनुभव करते हैं तथा केवली भगवान् केवल ज्ञान द्वारा निज शुद्ध-भात्मा का अनुभव करते हैं। इसलिये दोनों में कोई अन्तर नहीं है। पर-पदार्थ का होनाधिक ज्ञान आत्म-अनुभव में प्रयोजनवान नहीं है। इसलिये पर द्रव्य के अधिक ज्ञान को करने की आकुलता छोड़कर आत्म-अनुभव करने का अभ्यास कर, उसमें तेरा भला है। आत्म-अनुभव करने वाले जीवों को निश्चय से श्रुतवली कहते हैं जबकि सम्पूर्ण द्रव्यश्रुत के जानकार को व्यवहार से श्रुतकेवली कहते हैं। ऐसी आत्म अनुभव की अटूट महिमा है । देखिये श्री समयसार जी में गाथा नं०६ बिलकुल यही गाथा है ।