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पवयणसारो ]
अन्वय सहित विशेषार्थ—(फेवली भगवं) केवली भगवान सर्वज (परं) पर द्रध्यरूप ज्ञेय पदार्थ को (णेव गिण्हदि) नसी ग्रहण करते हैं, जबगि) होड़ते हैं (ण परिणमदि) न उस रूप परिणमन करते हैं। इससे जाना जाता है कि उनकी पर द्रव्य से मिन्मता ही है। तब क्या वे परद्रव्य को नहीं जानते हैं ? उसके लिये कहते हैं कि यद्यपि भिन्न हैं तथापि व्यवहारनय से (सो) वह भगवान् (णिरवसेसं सर्च) बिना अवशेष के सबको (समंतदो) सर्व द्रव्य, क्षेय, काल, भावों के साथ (पेच्छदि) देखते हैं तथा (जाणदि) जानते हैं।
अथवा इसी का दूसरा व्याख्यान यह है कि केवली भगवान भीतर तो काम, क्रोधादि भावों को और बाहर में पांचों इन्द्रियों के विषयरूप पदार्थों को ग्रहण नहीं करते हैं, न अपने आत्मा के अनन्तज्ञानादि चतुष्टय को छोड़ते हैं। यही कारण है जो केवलज्ञानी आत्मा केवलज्ञान की उत्पत्ति के काल में ही एक साथ सर्व को देखते-जानते हुए भी अन्य विकल्परूप परिणमन नहीं करते हैं । ऐसे वीतरागी होते हुए क्या करते हैं ? अपने स्वभाव रूप केवलज्ञान की ज्योति से निर्मल स्फटिकमणि के समान निश्चल चैतन्य प्रकाश रूप होकर अपने आत्मा के द्वारा आत्मा में जानते हैं, अनुभव करते हैं। इसी कारण से उनकी परद्रव्यों के साथ एकता नहीं है भिन्नता ही है, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिये ॥३२॥
इसी तरह ज्ञान-ज्ञेय रूप से परिणमन नहीं करता है, इत्यादि व्याख्यान करते हुए तीसरे स्थल में पांच गाथाएं पूर्ण हुई ॥३२॥
अथ केवलज्ञानिश्रुत शानिनोरविशेषदर्शनेन विशेषाकांक्षाक्षोभं क्षपति
जो हि सुदेण विजाणादि अप्पाणं जाणगं सहावेण । तं 'सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोगप्पदीवयरा ॥३३॥
यो हि भूतेन विजानात्यात्मानं झायक स्वभावेन ।
तं श्रुतकेवलिनमृषयो भणन्ति लोकपदीपकराः ॥३३।। यथा भगवान युगपल्परिणतसमस्तचतन्यविशेषशालिना केवलज्ञानेनानादिनिधननिष्कारणासाधारणस्वसंचेत्यमानचंतन्यसामान्यमहिम्नश्चेतकस्वभावेनकत्वात् केवलस्यात्मन आत्मनात्मनि संचेतनात् केवली, तथायं जनोऽपि कम्परिणममाणकतिपयचैतन्यविशेषशालिना श्रुतज्ञानेनानादिनिधननिष्कारणासाधारणस्वसंचेत्यमानचैतन्यसामान्यमहिम्नश्चेतकस्वभावेनैकत्वात् केवलस्यात्मन आत्मनात्मनि संचेतनात् श्रुतकेवली। अलं घिशेषाकांक्षाक्षोभेण, स्वरूपनिश्चलरेवावस्थीयते ॥३३॥
१. सुयकेवलिमिसिणो (ज. प.)। ३. लोयप्पदीययरा (ज॥ ७०) ।