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पवमणसारी
[ ७१ उपचार करके यह कहना कि ज्ञान पदार्थों को व्याप्त करके रहता है, विरोध को प्राप्त नहीं होता है ।३०।
तात्पर्यवृत्ति अथ तमेवार्थ दृष्टान्तद्वारेण दृदयति,
रयणमिह रत्नमिह जगति । किं नाम ? इदणीलं इंद्रनीलसंज। कि विशिष्टं ? दुद्धज्ज्ञसियं दुग्ध निक्षिप्तं जहा यथा सभासाए स्वकोयप्रभया अभिभूय तिरस्कृत्य । किं ? तपि बुद्ध तत्पूर्वोक्तं दुग्धमपि बट्टा वर्तते । इति दृष्टान्तो गतः। तह णाणमसु तथा ज्ञानमर्थेषु वर्तत इति । तद्यथा-यथेन्द्रनालरत्नं क स्वकीयनीलप्रभया करणभूतया दुग्ध नील कृत्वा वर्तते, तथा निश्चयरत्नत्रयात्मकपरमसामायिकसंयमेन यदुत्पन्न केवलज्ञानं तत् स्वपरपरिच्छित्तिसामथ्र्येन समस्ताज्ञानान्धकार तिरस्कृत्य युगपदेव सर्वपदार्थेषु परिच्छित्याकारेण वर्तते । अयमत्र भावार्थ:कारणभूतानां सर्वपदार्थानां कार्यभूताः परिच्छित्याकारा उपचारेणार्था भण्यन्ते, तेषु च ज्ञानं वर्तत इति भण्यमानेपि व्यवहारेण दोषो नास्तीति ।। ३०॥
उत्थानिका--आगे ऊपर कही हुई बात को दृष्टान्त के द्वारा दृढ़ करते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ—(इस) अगत् में (लहा) से (नगीनं माणस) इन्द्रनील नाम का रत्न (दुद्धज्झसियं) दूध में डुबाया हुआ (सभासाए) अपनी चमक से (तंपि बुद्धं) उस दूध को भी (अभिभूय) तिरस्कार करके (वट्टदि) वर्तता है (तह) तैसे (णाणम्) ज्ञान (अट्ठेसु) पदार्थों में वर्तता है।
भाव यह है कि जैसे इन्द्रनील नाम का प्रधानरत्न फर्ता होकर अपनी नीलप्रमारूपी कारण से दूध नीला करके वर्तन करता है तैसे निश्चयरत्नत्रयस्वरूप परम सामायिक नामा संयम के द्वारा जो उत्पन्न हुआ केवलज्ञान सो आपा-पर को जानने की शक्ति रखने के कारण सर्व अज्ञान के अंधेरे को तिरस्कार करके एक समय में ही सर्व पदार्थों में ज्ञानाकार से वर्तता है-यहां यह मतलब है कि कारणभूत पदार्थों के कार्य जो ज्ञानाकार ज्ञान में झलकते हैं उनको उपचार से पदार्थ कहते हैं। उन पदार्थों में ज्ञान वर्तन करता है ऐसा कहते हुए भी व्यवहार से दोष नहीं है ॥३०॥
अर्थवमर्था ज्ञाने वर्तन्त इति संभावयति--
'जदि ते ण संति अट्ठा णाणे गाणं ण होदि सव्वगदं । 'सव्वगदं वा णाणं कहं ण णाणठ्ठिया अट्ठा ॥३१॥
यदि ते न सन्त्यर्थाः ज्ञाने ज्ञान न भवति सर्बगतम् ।।
सर्वगतं वा शानं कथं न ज्ञानस्थिता: अर्थाः ॥३१॥ १. जइ (ज० ००)। २. होइ (ज० बृ०)। ३. सधगयं (ज० वृ०)। ४. सव्वगयं (जल वृ०)।