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[ पबयणसारो स्पर्श कर रहा है ऐसा लोकमें झलकता है। तंसे यह आत्मा मिथ्यात्व रागद्वेष आदि आत्रव भावों के और आत्मा के सम्बन्ध में जो केवलज्ञान होने के पूर्व विशेष भेदज्ञान होता है, उससे उत्पन्न जो केवलज्ञान और केवलवर्शन के द्वारा तीन जगत और तीनकालवी पदार्थों को निश्चय से स्पर्श न करता हुआ भी व्यवहार से स्पर्श करता है तथा स्पर्श करता हुआ हो ज्ञान से जानता है और दर्शन से देखता है । वह आत्मा अतीन्द्रिय सुख के स्वाद में परिणमन करता हुआ इन्द्रियों के विषयो से अतीत हो गया है । इसलिये जाना जाता है कि निश्चय से आत्मा पदार्थों में प्रवेश न करता हुआ ही व्यवहार से ज्ञेय पदार्थों में प्रवेश हुआ ही घटता है ॥२६॥
अर्थवं ज्ञानमर्थेषु वर्तत इति संभावयति
रयणमिह इंदणीलं दुद्धज्झसियं जहा सभासाए। अभिभूय तं पि दुद्धं 'वट्टदि तह णाणमत्थेसु ॥३०॥
रलमिह इन्द्रनीलं दुग्धाध्युषितं यथा स्वभासा।।
अभिभूय तदपि दुग्धं वर्तते तथा ज्ञानमर्थेषु ॥३०॥ यथा किलेन्द्रनीलरत्नं दुग्धमधिवसत्स्वप्रभाभारेण तदभिभूय वर्तमानं दृष्टं, तथा संवेदनमप्यात्मनोऽभिन्नत्वात् कत्रशेनात्मतामापन्नं करणांशेन ज्ञानतामापन्नेन, कारणभूतानामर्थानां कार्यभूतान् समस्तज्ञेयाकारानभिव्याप्य वर्तमान कार्यकारणत्वेनोपचयं ज्ञानमर्थानभिभूय वर्तत इत्युच्यमानं न विप्रतिषिध्यते ॥३०॥
भूमिका-अब, मान पदार्थों में इस प्रकार रहता है, यह स्पष्ट करते हैं:__ अन्वयार्थ— [यथा] जैसे [इह] इस जगत् में [दुग्धाध्युषितं] दूध में पड़ा हुआ [इन्द्रनील रत्नं ] इन्द्रनील रत्न |स्वभासा अपनी प्रभा के द्वारा [तत् अपि दुग्धं] उस दूध को (में) [अभिभूय] तिरस्कृत करके [वर्तते रहता है [तथा| उसी प्रकार [ज्ञान] ज्ञान (अर्थात् ज्ञातृ द्रव्य) [अर्थेषु] ज्ञेय पदार्थों में व्याप्त होकर [वर्तते ] रहता है।
टीका-जैसे वास्तव में दूध में पड़ा हुआ इन्द्रनील रत्न अपनी प्रभा से उस (दूध) को तिरस्कार करके रहता हआ देखा गया है, उसी प्रकार ज्ञान भी आत्मा से अभिन्न होने के कारण कर्ता-अंश से आत्मा को प्राप्त होता हुआ, ज्ञानपने को प्राप्त करण-अंश द्वारा कारणभूत पदार्थों (बाह्यज्ञेय-पदार्थों) के कार्यभूत-समस्त-ज्ञयाकारों (ज्ञान में ज्ञयाकारों) को व्याप्त हुआ वर्तता है। इसलिये कार्य में कारणपने से (जे याकारों में पदार्थों का)
१ वट्टर (ज० वृ०)। २. तह णाणमठेसु (ज० वृ.) ।