________________
५२ ]
[ पवयणसारो
भाव यह है कि मुनियों के आहार शरीर की स्थिति के लिये होता है, शरीर को ज्ञान के लिये रखते हैं, आत्मज्ञान कर्म नाश के लिये सेवन करते हैं क्योंकि कर्मों के नाश से परम सुख होता है। मुनि शरीर के बल आयु, चेष्टा तथा तेज के लिये भोजन नहीं करते हैं किन्तु ज्ञान, संयम तथा ध्यान के लिये करते । उन भगवान् केवली के तो ज्ञान, संयम तथा ध्यान आदि गुण स्वभाव से ही पाए जाते हैं आहार के बल से नहीं । उनको संयमादि के लिये आहार की आवश्यकता तो है नहीं क्योंकि कर्मों के आवरण न होने से संयमावि गुण तो प्रगट हो रहे हैं। फिर यदि कहो कि देह के ममत्त्व से आहार करते हैं तो वे केवली छद्मस्थ मुनियों से भो हीन हो जायेंगे । यदि कहोगे कि उनके अतिशय को विशेषता से प्रगटरूप से भोजन की मुक्ति नहीं है, गुप्त है, तो परमोदारिक शरीर होने से मुक्ति ही नहीं है ऐसा अतिशय क्यों नहीं होता है। क्योंकि गुप्त भोजन में मायाचार का स्थान होता है, दीनता की वृति आती है तथा दूसरे भी पिंड शुद्धि में कहे हुए बहुत से दोष होते हैं जिनको दूसरे ग्रन्थ से व तर्कशास्त्र से जानना चाहिये । अध्यात्म ग्रन्थ होने से यहाँ अधिक नहीं कहा गया है। यहां यह भावार्थ है कि ऐसा ही वस्तु का स्वरूप जानना चाहिये । इसमें हठ नहीं करना चाहिये । खोटा आग्रह या हठ करने से रागद्वेष की उत्पत्ति होती है, जिससे निर्विकार चिदानंदमयी एक स्वभाव रूप परमात्मा की भावना का घात होता है। इस तरह अनन्तज्ञान और सुख की स्थापना करते हुए प्रथम गाथा तथा केवली के भोजन का निराकरण करते हुए दूसरी गाया है। इस तरह दो गाथाएं पूर्ण हुई । इस तरह सात गाथाओं के द्वारा चार स्थलों से सामान्य से सर्वज्ञसिद्धि नाम का दूसरा अन्तर अधिकार समाप्त हुआ ॥२०॥
अथ ज्ञानस्वरूपप्रपञ्चं सौख्यस्वरूपप्रपञ्चं च क्रमप्रवृत्तप्रबन्धद्वयेनाभिवधाति । तत्र केवलिनोतीन्द्रियज्ञानपरिणतत्वात्सर्वं प्रत्यक्षं भवतीति विभावयति —
परिणमदो खलु णाणं पच्चक्खा सव्वदध्वपज्जाया ।
सो व ते विजाणवि उमाहवाहि किरियाहिं ॥ २१ ॥
परिणममानस्य खलु ज्ञानं प्रत्यक्षाः सर्वद्रव्यपर्यायाः ।
सो नैव तान् विजानात्यवग्रहपूर्वाभिः क्रियाभिः ॥ २१ ॥
यतो न खल्विन्द्रियाण्याल न्याय ग्रह हा वायपूर्वक प्रक्रमेण केथली विजानाति, स्वयमेव एवानाद्यनन्ताहेतुकासाधारणभूतज्ञानस्वभावमेव कारणत्वेनोपादाय
समस्तावरणक्षयक्षण